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________________ ६२ मसूत्र - हिन्दी अनुवाद तिलक, लवक, न्यग्रोध यावत् राजवृक्ष, नंदिवृक्ष हैं जो दर्भ और कांस से रहित हैं यावत् श्री से अतीव शोभायमान हैं । उस एकोरुकद्वीप में जगह-जगह बहुत सी पद्मलताएँ यावत् श्यामलताएँ हैं जो नित्य कुसुमित रहती हैं- आदि लता का वर्णन औपपातिकसूत्र के अनुसार कहना यावत् वे दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं । उस एकोरुकद्वीप में जगह-जगह बहुत से सेरिकागुल्म यावत् महाजातिगुल्म हैं । वे गुल्म पांच वर्णों के फूलों से नित्य कुसुमित रहते हैं । उनकी शाखाएँ पवन से हिलती रहती हैं जिससे उनके फूल एकोरुकद्वीप के भूमिभाग को आच्छादित करते रहते हैं । एकोरुकद्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत सी वनराजियाँ हैं । वे वनराजियाँ अत्यन्त हरी-भरी होने से काली प्रतीत होती हैं, काली ही उनकी कान्ति है यावत् वे रम्य हैं और महामेघ के समुदायरूप प्रतीत होती हैं यावत् वे बहुत ही मोहक और तृप्तिकारक सुगंध छोड़ती हैं और वे दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुकद्वीप में स्थान-स्थान पर मत्तांग नामक कल्पवृक्ष हैं। जैसे चन्द्रप्रभा, मणि-शलाका श्रेष्ठ सीधु, प्रवरवारुणी, जातिवंत फल - पत्र-पुष्प सुगंधित द्रव्यों से निकले हुए सारभूत रस और नाना द्रव्यों से युक्त एवं उचित काल में संयोजित करके बनाये हुए आसव, मधु, मेरक, रिष्टाभ, दुग्धतुल्यस्वाद वाली प्रसन्न, मेल्लक, शतायु, खजूर और मृद्धिका के रस, कपिश वर्ण का गुड़ का रस, सुपक्क क्षोद रस, वरसुरा आदि विविध मद्य प्रकारों में जैसे वर्ण, रस, गंध और स्पर्श तथा बलवीर्य पैदा करने वाले परिणमन होते हैं, वैसे ही वे मत्तांग वृक्ष नाना प्रकार के विविध स्वाभाविक परिणाम वाली मद्यविधि से युक्त और फलों से परिपूर्ण हैं एवं विकसित हैं । वे कुश और कांस से रहित मूल वाले तथा शोभा से अतीवअतीव शोभायमान हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में जहाँ-तहाँ बहुत से भृत्तांग नाम कल्पवृक्ष हैं । जैसे वारक, घट, करक, कलश, कर्करी, पादकंचनिका, उदक, वद्धणि, सुप्रतिष्ठक, पारी, चषक, भिंगारक, करोटि, शरक, थरक, पात्री, थाली, जलभरने का घड़ा, विचित्र वर्तक, मणियों के वर्तक, शुक्ति आदि बर्तन जो सोने, मणिरत्नों के बने होते हैं तथा जिन पर विचित्र प्रकार की चित्रकारी की हुई होती है वैसे ही ये भृत्तांग कल्पवृक्ष भाजनविधि में नाना प्रकार के वित्रसापरिणत भाजनों से युक्त होते हैं, फलों से परिपूर्ण और विकसित होते हैं । ये कुश-कास से रहित मूल वाले यावत् शोभा से अतीव शोभायमान होते हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुकद्वीप में जहाँ-तहाँ बहुत सारे त्रुटितांग नामक कल्पवृक्ष हैं । जैसे मुरज, मृदंग, प्रणव, पटह, दर्दरक, करटी, डिंडिंग, भंभा-ढक्का, होरंभ, क्वणित, खरमुखी, मुकुंद, शंखिका, परिली- वच्चक, परिवादिनी, वंश, वीणा-सुघोषा - विपंची महती कच्छपी, रिगसका, तलताल, कांस्यताल, आदि वादित्र जो सम्यक् प्रकार से बजाये जाते हैं, वाद्यकला में निपुण एवं गन्धर्वशास्त्र में कुशल व्यक्तियों द्वारा जो - बजाये जाते हैं, जो आदि-मध्यअवसान रूप तीन स्थानों से शुद्ध हैं, वैसे ही ये त्रुटितांग कल्पवृक्ष नाना प्रकार के स्वाभाविक परिणाम से परिणत होकर तत- वितत घन और शुषिर रूप चार प्रकार की वाद्यविधि से युक्त होते हैं । ये फलादि से लदे होते हैं, विकसित होते हैं । यावत् श्री से अत्यन्त शोभायमान होते हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में यहाँ-वहाँ बहुत-से दीपशिखा नामक कल्पवृक्ष हैं । जैसे यहाँ सन्ध्या के उपरान्त समय में नवनिधिपति चक्रवर्ती के यहाँ दीपिकाएँ होती हैं 1
SR No.009785
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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