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________________ जीवाजीवाभिगम-३/ नैर.-२/११० ५५ [११०] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक में सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्त्व पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक रूप में और नैरयिक रूप में पूर्व में उत्पन्न हुए हैं क्या ? हाँ गौतम ! उत्पन्न हुए हैं । इस प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना । विशेषता यह है - जिस पृथ्वी में जितने नरकावास हैं उनका उल्लेख वहाँ करना । [999] इस उद्देशक में निम्न विषयों का प्रतिपादन हुआ है- पृथ्वियों की संख्या, कितने क्षेत्र में नरकवास हैं, नारकों के संस्थान, तदनन्तर मोटाई, विष्कम्भ, परिक्षेप वर्ण, गन्ध, स्पर्श | [११२] नरकों की विस्तीर्णता बताने हेतु देव की उपमा, जीव और पुद्गलों की उनमें व्युत्क्रान्ति, शाश्वत् अशाश्वत प्ररूपणा । [११३] उपपात एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं, अपहार, उच्चत्व, नारकों के संहनन, संस्थान, वर्ण, गन्ध, स्पर्श, उच्छ्वास, आहार । [११४] लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, समुद्घात, भूख-प्यास, विकुर्वणा, वेदना, भय । [११५] पांच महापुरुषों का सप्तम पृथ्वी में उपपात, द्विविध वेदना - उष्णवेदना शीतवेदना, स्थिति, उद्वर्तना, पृथ्वी का स्पर्श और सर्वजीवों का उपपात । [११६] यह संग्रहणी गाथाएं है । प्रतिपत्ति- ३ - नैरयिक उद्देशक - ३ [११७] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के पुद्गलों के परिणमन का अनुभव करते हैं ? गौतम ! अनिष्ट यावत् अमनाम पुद्गलों का । इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी के नैरयिकों तक कहना । [११८] इस सप्तमपृथ्वी में प्राय: करके नरवृषभ, वासुदेव, जलचर, मांडलिक राजा और महा आरम्भ वाले गृहस्थ उत्पन्न होते हैं । [११९] नारकों में अन्तर्मुहूर्त, तिर्यक् और मनुष्य में चार अन्तर्मुहूर्त और देवों में पन्द्रह दिन का उत्तर विकुर्वणा का उत्कृष्ट अवस्थानकाल है । [१२०] जो पुद्गल निश्चित रूप से अनिष्ट होते हैं, उन्हीं का नैरयिक आहार करते हैं । उनके शरीर की आकृति अति निकृष्ट और हुंडसंस्थान वाली होती है । [१२१] सब नैरयिकों की उत्तरविक्रिया भी अशुभ ही होती है । उनका वैक्रियशरीर असंहननवाला और हुंडसंस्थान वाला होता है । [१२२] सर्व नरक पृथ्वीओं में और कोई भी स्थिति वाले नैरयिक का जन्म असातावाला होता है, उनका सारा नारकीय जीवन दुःख में ही बीतता है । [१२३] नैरयिक जीवों में से कोई जीव उपपात के समय, पूर्व सांगतिक देव के निमित्त से कोई नैरयिक, कोई नैरयिक शुभ अध्यवसायों के कारण अथवा कर्मानुभाव से साता का वेदन करते हैं । [१२४] सैकड़ों वेदनाओं से अवगाढ होने के कारण दुःखों से सर्वात्मना व्याप्त नैरयिक
SR No.009785
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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