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________________ २०२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद [२३८] दीर्घ अथवा ह्रस्व, जो अन्तिमभव में संस्थान होता है, उससे तीसरा भाग कम सिद्धों की अवगाहना है । (२३९] इस भव को त्यागते समय अन्तिम समय में (त्रिभागहीन जितने) प्रदेशों में सघन संस्थान था, वही संस्थान वहाँ रहता है । [२४०] ३३३ धनुष और एक धनुष के तीसरे भाग जितनी अवगाहना होती है । यह सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना है । २४१] चार रत्नि और त्रिभागन्यून एक रत्नि, यह सिद्धों की मध्यम अवगाहना कही है । २४२] एक रत्लि और आठ अंगुल अधिक, यह सिद्धों की जघन्य अवगाहना है। [२४३] (अन्तिम) भव (चरम शरीर) से त्रिभाग हीन सिद्धों की अवगाहना है । जरा और मरण से सर्वथा विमुक्त सिद्धों का संस्थान अनित्थंस्थ होता है । [२४४] जहाँ एक सिद्ध है, वहाँ भवक्षय के कारण विमुक्त अनन्त सिद्ध रहते हैं । वे सब लोक के अन्त भाग से स्पष्ट एवं परस्पर समवगाढ़ हैं ।। [२४५] एक सिद्ध सर्वप्रदेशों से नियमतः अनन्तसिद्धों को स्पर्श करता (स्पृष्ट हो कर रहता) है । तथा जो देश-प्रदेशों से स्पृष्ट (होकर रहे हुए) हैं, वे सिद्ध तो (उनसे भी) असंख्यातगुणा अधिक हैं । [२४६] सिद्ध भगवान् अशरीरी हैं, जीवघन हैं तथा ज्ञान और दर्शन में उपयुक्त रहते हैं; साकार और अनाकार उपयोग होना, यही सिद्धों का लक्षण है । [२४७] केवलज्ञान से उपयुक्त होने से वे समस्त पदार्थों को, उनके समस्त गुणों और पर्यायों को जानते हैं तथा अनन्त केवलदर्शन से सर्वतः देखते हैं । [२४८] अव्याबाध को प्राप्त सिद्धों को जो सुख होता है, वह न तो मनुष्यों को होता है, और न ही समस्त देवों को होता है । [२४९] देवगण के समस्त सुख को सर्वकाल के साथ पिण्डित किया जाय, फिर उसको अनन्त गुणा किया जाय तथा अनन्त वर्गों से वर्गित किया जाए तो भी वह मुक्तिसुख को नहीं पा सकता । [२५०] एक सिद्ध के (प्रतिसमय के) सुखों की राशि, यदि सर्वकाल से पिण्डित की जाए, और उसे अनन्तवर्गमूलों से भाग दिया जाए, तो वह सुख भी सम्पूर्ण आकाश में नहीं समाएगा । [२५१] जैसे कोई म्लेच्छ अनेक प्रकार के नगर-गुणों को जानता हुआ भी उसके सामने कोई उपमा न होने से कहने में समर्थ नहीं होता । [२५२] इसी प्रकार सिद्धों का सुख अनुपम है । फिर भी कुछ विशेष रूप से इसकी उपमा बताऊँगा, इसे सुनो । [२५३] जैसे कोई पुरुष सर्वकामगुणित भोजन का उपभोग करके प्यास और भूख से विमुक्त होकर ऐसा हो जाता है, जैसे कोई अमृत से तृप्त हो । [२५४] वैसे ही सर्वकाल में तृप्त अतुल, शाश्वत, एवं अव्याबाध निर्वाण-सुख को प्राप्त सिद्ध भगवान् सुखी रहते हैं ।
SR No.009785
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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