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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद I योजन छोड़ कर, बीच में आठ सौ योजन में, वाणव्यन्तर देवों के तिरछे असंख्यात भौमेय लाखों नगरावास है । वे भौमेयनगर बाहर से गोल और अंदर से चौरस तथा नीचे से कमल की कर्णिका के आकार में संस्थित हैं । इत्यादि वर्णन भवनवासी के भवन समान समझना । इन में पर्याप्त और अपर्याप्त वाणव्यन्तर देवों के स्थान हैं । वे स्थान तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं; जहाँ कि बहुत-से वाण - व्यन्तरदेव निवास करते हैं । वे इस प्रकार हैं - पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महाकाय भुजगपति तथा गन्धर्वगण । (इनके आठ अवान्तर भेद-) अणपर्णिक, पणपर्णिक, ऋषिवादित, भूतवादित, क्रन्दित, महाक्रन्दित, कूष्माण्ड और पतंगदेव है । १९४ I 1 ये चंचल, चपल, क्रीडा - तत्पर और परिहास - प्रिय होते हैं । गंभीर हास्य, गीत और नृत्य में इनकी अनुरक्ति है । वनमाला, कलंगी, मुकुट, कुण्डल तथा इच्छानुसार विकुर्वित आभूषणों से वे भलीभांति मण्डित रहते हैं । सुगन्धित पुष्पों से सुरचित, लम्बी शोभनीय, सुन्दर एवं खिलती हुई विचित्र वनमाला से वक्षस्थल सुशोभित रहता है । अपनी कामनानुसार काम-भोगों का सेवन करनेवाले, इच्छानुसार रूप एवं देह के धारक, विविध वर्णों वाले, श्रेष्ठ विचित्र चमकीले वस्त्रों के धारक, विविध देशों की वेशभूषा धारण करने वाले होते हैं, इन्हें प्रमोद, कन्दर्प, कलह, केलि और कोलाहल प्रिय है । इनमें हास्य और विवाद बहुत होता है। इनके हाथों में खङ्ग, मुद्गर, शक्ति और भाले रहते हैं । अनेक मणियों और रत्नों के विविधचिह्न वाले होते हैं । महर्द्धिक, महाद्युतिमान, महायशस्वी, महाबली, महानुभाव या महासामर्थ्यशाली, महासुखी, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले होते हैं । कड़े और बाजूबंद से इनकी भुजाएँ मानो स्तब्ध रहती हैं अंगद और कुण्डल इनके कपोलस्थल को स्पर्श यि रहते हैं । ये कानों में कर्णपीठ धारण किये रहते हैं, इनके हाथों में विचित्र आभूषण एवं मस्तक में विचित्र मालाएँ होती हैं । ये कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए तथा कल्याणकारी माला एवं अनुलेपन धारण किये रहते हैं । इनके शरीर अत्यन्त देदीप्यमान होते हैं । ये लम्बी वनमालाएँ धारण करते हैं तथा दिव्य वर्ण- गन्ध-स्पर्श- संहनन संस्थान-ऋद्धि-धुति-प्रभा-छायाअर्चि- तेज एवं दिव्य लेश्या से दशों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करते हुए वे वहाँ अपने-अपने लाखों भौमेय नगरावासों का हजारों सामानिक देवों का अग्रमहिषियों का, परिषदों का, सेनाओं का सेनाधिपति देवों का, आत्मरक्षक देवों का और अन्य बहुत-से वाणव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आज्ञैश्वरत्व एवं सेनापतित्व करते-कराते तथा उनका पालन करते-कराते हुए वे महान् उत्सव के साथ नृत्य, गीत और वीणा, तल, ताल, त्रुटित, घनमृदंग आदि वाद्यों को बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य भोगों को भोगते हुए रहते हैं । [२१८] भंते ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पिशाच देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के बीच के आठ सौ योजन में, पिशाच देवों के तिरछे असंख्यात भूगृह के समान लाखों नगरावास है । नगरावास वर्णन पूर्ववत् । इन में पर्याप्तक और अपर्याप्तक पिशाच देवों के स्थान हैं । (वे स्थान ) तीनों अपेक्षाओं से लोक असंख्यातवें भाग में हैं; जहाँ कि बहुत-से पिशाच देव निवास करते
SR No.009785
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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