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________________ १०८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद १२००० योजन आगे हैं । १८९] नीलवंत द्रह के पूर्व-पश्चिम में दस योजन आगे जाने पर दस दस काञ्चनपर्वत हैं । ये कांचन पर्वत एक सौ-एक सौ योजन ऊंचे, पच्चीस-पच्चीस योजन भूमि में, मूल में एक-एक सौ योजन चौड़े, मध्य में ७५ योजन चौड़े और ऊपर. पचास-पचास योजन चौड़े हैं । इनकी परिधि मूल में ३१६ योजन से कुछ अधिक, मध्य में २२७ योजन से कुछ अधिक और ऊपर १५८ योजन से कुछ अधिक है । ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतले हैं, गोपुच्छ के आकार में संस्थित हैं, ये सर्वात्मना कंचनमय हैं, स्वच्छ हैं। इनके प्रत्येक के चारों ओर पद्मवरवेदिकाएँ और वनखण्ड हैं । उन कांचन पर्वता के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है, यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव-देवियां बैठती हैं आदि । उन प्रत्येक भूमिभागों में प्रासादातंसक हैं । ये साढ़े बासठ योजन ऊँचे और इकतीस योजन एक कोस चौड़े हैं । इनमें दो योजन की मणिपीठिकाएँ हैं और सिंहासन हैं । ये सिंहासन सपरिवार हैं । हे भगवन् ! ये कांचनपर्वत कांचनपर्वत क्यों कहे जाते हैं ? गौतम ! इन कांचनपर्वतों की वावडियों में बहुत से उत्पल कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र-कमल हैं जो स्वर्ण की कान्ति और स्वर्ण-वर्ण वाले हैं यावत् वहाँ कांचनक नाम के महार्द्धिक देव रहते हैं, यावत् विचरते हैं । इसलिए । इन कांचन देवों की कांचनिका राजधानियां कांचनक पर्वतों से उत्तर में असंख्यात द्वीप-समुद्रों को पार करने के बाद अन्य जम्बूद्वीप में हैं । हे भगवन् उत्तरकुरु क्षेत्र का उत्तरकुरुद्रह कहाँ है ? गौतम ! नीलवंतद्रह के दक्षिण में ८३४-४/७ योजन दूर उत्तरकुरुद्रह है-आदि । सब द्रहों में उसी-उसी नाम के देव हैं, दस-दस कांचनक पर्वत हैं, इनकी राजधानियां उत्तर की ओर असंख्य द्वीप-समुद्र पार करने पर अन्य जम्बूद्वीप में हैं । इसी प्रकार चन्द्रद्रह, एरावतद्रह और मालवंतद्रह के विषय में भी यही कहना । [१९०] हे भगवन् ! उत्तरकुरु क्षेत्र में सुदर्शना अपर नाम जम्बू का जम्बूपीठ नाम का पीठ कहाँ है । हे गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के उत्तरपूर्व में, नीलवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, मालवंत वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में, गंधमादन वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में, शीता महानदी के पूर्वीय किनारे पर है जो ५०० योजन लम्बा-चौड़ा है, १५८१ योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है । वह मध्यभाग में बारह योजन की मोटाई वाला है, उसके बाद क्रमशः प्रदेशहानि से चरमान्तों में दो कोस का मोटा रह जाता है । वह सर्व जम्बूनदमय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है । वह जम्बूपीठ एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है । उस जम्बूपीठ की चारों दिशाओं में चार त्रिसोपानप्रतिरूपक हैं । उस जम्बूपीठ के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है उसके मध्य में एक विशाल मणिपीठिका है जो आठ योजन की लम्बी-चौड़ी और चार योजन की मोटी है, मणिमय है, यावत् प्रतिरूप है । उस के ऊपर विशाल जम्बूवृक्ष है । वह आठ योजन ऊँचा है, आधा योजन जमीन में है, दो योजन का उसका स्कंध है, आठ योजन चौड़ाई है, छह योजन तक उसकी शाखाएँ फैली हुई हैं, मध्यभाग में आठ योजन चौड़ा है, आठ योजन से अधिक ऊँचा है । इसके मूल वज्ररत्न के हैं, शाखाएँ रजत की हैं । यावत् चैत्यवृक्ष के समान सब वर्णन जानना ।। [१९१] सुदर्शना अपर नाम जम्बू की चारों दिशाओं में चार-चार शाखाएँ हैं, उनमें
SR No.009785
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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