SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नव्याकरण-२/७/३६ के कारण जिनकी बुद्धि काम न कर रही हो, उनके जहाज भी सत्य के प्रभाव से ठहर जाते हैं, डूबते नहीं हैं । सत्य का ऐसा प्रभाव है कि भंवरों से युक्त जल के प्रवाह में भी मनुष्य बहते नहीं हैं, मरते नहीं हैं, किन्तु थाह पा लेते हैं । अग्नि के भयंकर घेरे में पड़े हुए मानव जलते नहीं हैं । उबलते हुए तेल, रांगे, लोहे और सीसे को छू लेते हैं, हथेली पर रख लेते हैं, फिर भी जलते नहीं हैं । मनुष्य पर्वत के शिखर से गिरा दिये जाते हैं-फिर भी मरते नहीं हैं । सत्य को धारण करनेवाले मनुष्य चारों ओर से तलवारों के घेरे में भी अक्षत-शरीर संग्राम से बाहर निकल आते हैं । सत्यवादी मानव वध, बन्धन सबल प्रहार और घोर वैर-विरोधियों के बीच में से मुक्त हो जाते हैं-बच निकलते हैं । सत्यवादी शत्रुओं के घेरे में से बिना किसी क्षति के सकुशल बाहर आ जाते हैं । देवता भी सान्निध्य करते हैं । तीर्थंकरों द्वारा भाषित सत्य दस प्रकार का है । इसे चौदह पूर्वो के ज्ञाता महामुनियों ने प्राभृतों से जाना है एवं महर्षियों को सिद्धान्त रूप में दिया गया है । देवेन्द्रों और नरेन्द्रों ने इसका अर्थ कहा है, सत्य वैमानिक देवों द्वारा भी समर्थित है । महान् प्रयोजनवाला है । मंत्र औषधि और विद्याओं की सिद्धि का कारण है-चारण आदि मुनिगणों की विद्याओं को सिद्ध करनेवाला है । मानवगणों द्वारा वंदनीय है-इतना ही नहीं, सत्यसेवी मनुष्य देवसमूहो के लिए भी अर्चनीय तथा असुरकुमार आदि भवनपति देवों द्वारा भी पूजनीय होता है । अनेक प्रकार के पाषंडी-व्रतधारी इसे धारण करते हैं । इस प्रकार की महिमा से मण्डित यह सत्य लोक में सारभूत है । महासागर से भी गम्भीर है । सुमेरु पर्वत से भी अधिक स्थिर है । चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य है । सूर्यमण्डल से भी अधिक देदीप्यमान है । शरत्-काल के आकाश तल से भी अधिक विमल है । गन्धमादन से भी अधिक सुरभिसम्पन्न है । लोक में जो भी समस्त मंत्र हैं, वशीकरण आदि योग हैं, जप हैं, प्रज्ञप्ति प्रभृति विद्याएँ हैं, दस प्रकार के मुंभक देव हैं, धनुष आदि अस्त्र हैं, जो भी शस्त्र हैं, कलाएँ हैं, आगम हैं, वे सभी सत्य में प्रतिष्ठित हैं। किन्तु जो सत्य संयम में बाधक हो-वैसा सत्य तनिक भी नहीं बोलना चाहिए । जो वचन हिंसा रूप पाप से युक्त हो, जो भेद उत्पन्न करने वाला हो, जो विकथाकारक हो, जो निरर्थक वाद या कलहकारक हो, जो वचन अनार्य हो, जो अन्य के दोषों को प्रकाशित करने वाला हो, विवादयुक्त हो, दूसरों की विडम्बना करने वाला हो, जो विवेकशून्य जोश और धृष्टता से परिपूर्ण हो, जो निर्लज्जता से भरा हो, जो लोक या सत्पुरुषों द्वारा निन्दनीय हो, ऐसा वचन नहीं बोलना चाहिए । जो घटना भलीभाँति स्वयं न देखी हो, जो बात सम्यक् प्रकार से सुनी न हो, जिसे ठीक तरह जान नहीं लिया हो, उसे या उसके विषय में बोलना नहीं चाहिए । इसी प्रकार अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा भी (नहीं करनी चाहिए), यथा-तू बुद्धिमान् नहीं है, तू दरिद्र है, तू धर्मप्रिय नहीं है, तू कुलीन नहीं है, तू दानपति नहीं है, तू शूरवीर नहीं है, तू सुन्दर नहीं है, तू भाग्यवान् नहीं है, तू पण्डित नहीं है, तू बहुश्रुत नहीं है, तू तपस्वी भी नहीं है, तुझमें परलोक संबंधी निश्चय करने की बुद्धि भी नहीं है, आदि । अथवा जो वचन सदा-सर्वदा जाति, कुल, रूप, व्याधि, रोग से सम्बन्धित हो, जो पीडाकारी या निन्दनीय होने के कारण वर्जनीय हो, अथवा जो वचन द्रोहकारक हो-शिष्टाचार के अनुकूल न हो, इस प्रकार का तथ्य-सद्भूतार्थ वचन भी नहीं बोलना चाहिए । 67
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy