SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद लिए अनिष्ट होते हैं । उनके वचनों को कोई ग्राह्य नहीं मानता और वे दुर्विनीत होते हैं । उन्हें रहने को, बैठने को खराब आसन, सोने को खराब शय्या और खाने को खराब भोजन मिलता है । वे अशुचि रहते हैं । उनका संहनन खराब होता है, शरीर प्रमाणोपेत नहीं होता। उनके शरीर की आकृति बेडौल होती है । वे कुरूप होते हैं । तीव्रकषायी होते हैं और मोह की तीव्रता होती है । उनमें धर्मसंज्ञा नहीं होती । वे सम्यग्दर्शन से रहित होते हैं । उन्हें दरिद्रता का कष्ट सदा सताता रहता है । वे सदा परकर्मकारी रहकर जिन्दगी बिताते हैं । कृपणरंक-दीन-दरिद्र रहते हैं । दूसरों के द्वारा दिये जाने वाले पिण्ड-ताक में रहते हैं । कठिनाई से दुःखपूर्वक आहार पाते हैं, किसी प्रकार रूखे-सूखे, नीरस एवं निस्सार भोजन से पेट भरते हैं। दूसरों का वैभव, सत्कार-सम्मान भोजन, वस्त्र आदि समुदय-अभ्युदय देखकर वे अपनी निन्दा करते हैं । इस भव में या पूर्वभव में किये पापकर्मों की निन्दा करते हैं । उदास मन रह कर शोक की आग में जलते हुए लज्जित-तिरस्कृत होते हैं । साथ ही वे सत्त्वहीन, क्षोभग्रस्त तथा चित्रकला आदि शिल्प के ज्ञान से, विद्याओं से एवं शास्त्र ज्ञान से शून्य होते हैं । यथाजात अज्ञान पशु के समान जड़ बुद्धि वाले, अविश्वसनीय या अप्रतीति उत्पन्न करने वाले होते हैं। सदा नीच कृत्य करके अपनी आजीविका चलाते हैं लोकनिन्दित, असफल मनोरथ वाले, निराशा से ग्रस्त होते हैं । अदत्तादान का पाप करने वालों के प्राणी भवान्तर में भी अनेक प्रकार की तृष्णाओं के पाश में बँधे रहते हैं । लोक में सारभूत अनुभव किये जाने वाले अर्थोपार्जन एवं कामभोगों सम्बन्धी सुख के लिए अनुकूल या प्रबल प्रयत्न करने पर भी उन्हें सफलता प्राप्त नहीं होती। उन्हें प्रतिदिन उद्यम करने पर भी बड़ी कठिनाई से इधर-उधर बिखरा भोजन ही नसीब होता है । वे प्रक्षीणद्रव्यसार होते हैं । अस्थिर धन, धान्य और कोश के परिभोग से वे सदैव वंचित रहते हैं । काम तथा भोग के भोगोपभोग के सेवन से भी वंचित रहते हैं । परायी लक्ष्मी के भोगोपभोग को अपने अधीन बनाने के प्रयास में तत्पर रहते हुए भी वे बेचारे न चाहते हुए भी केवल दुःख के ही भागी होते हैं । उन्हें न तो सुख नसीब होता है, न शान्ति । इस प्रकार जो पराये द्रव्यों से विरत नहीं हुए हैं, वे अत्यन्त एवं विपुल सैकड़ों दुःखों की आग में जलते रहते हैं । अदत्तादान का यह फलविपाक है । यह इहलोक और परलोक में भी होता है । यह सुख से रहित है और दुःखों की बहुलता वाला है । अत्यन्त भयानक है । अतीव प्रगाढ कर्मरूपी रज वाला है । बड़ा ही दारुण है, कर्कश है, असातामय है और हजारों वर्षों में इससे पिण्ड छूटता है, किन्तु इसे भोगे विना छुटकारा नहीं मिलता । ज्ञातकुलनन्दन, महावीर भगवान् ने इस प्रकार कहा है । अदत्तादान के इस तीसरे (आस्त्रव-द्वार के) फलविपाक को भी उन्हीं तीर्थंकर देव ने प्रतिपादित किया है । यह अदत्तादान, परधन-अपहरण, दहन, मृत्यु, भय, मलिनता, त्रास, रौद्रध्यान एवं लोभ का मूल है । इस प्रकार यह यावत् चिर काल से लगा हुआ है । इसका अन्त कठिनाई से होता है । अध्ययन-३-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (अध्ययन-४ आस्रवद्वार-४) [१७] हे जम्बू ! चौथा आस्रवद्वार अब्रह्मचर्य है । यह अब्रह्मचर्य देवों, मानवों और
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy