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________________ राजप्रश्नीय-५७ २५१ ध्यान में रखेंगे । __ तत्पश्चात् चित्त सारथी ने केशी कुमारश्रमण को वंदना की, नमस्कार किया और कोष्ठक चैत्य से बाहर निकला । जहाँ श्रावस्ती नगरी थी, जहाँ राजमार्ग पर स्थित अपना आवास था, वहाँ आया और कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर उनसे कहा-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही चार घंटोंवाला अश्वरथ जोतकर लाओ । इसके बाद जिस प्रकार पहले सेयविया नगरी से प्रस्थान किया था उसी प्रकार श्रावस्ती नगरी से निकल कर यावत् जहाँ केकय-अर्ध देश था, उसमें जहाँ सेयविया नगरी थी और जहाँ उस नगरी का मृगवन नामक उद्यान था, वहाँ आ पहुँचा । वहाँ आकर उद्यानपालकों को बुलाकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! जब पाश्वपित्य केशी नामक कुमारश्रमण श्रमणचर्यानुसार अनुक्रम से विचरते हुए, ग्रामानुग्राम विहार करते हुए यहाँ पधारें तब तुम केशी कुमारश्रमण को वंदना करना, नमस्कार करना । उन्हें यथाप्रतिरूप वसतिका की आज्ञा देना तथा प्रातिहारिक पीठ, फलक आदि के लिए उपनिमंत्रित करना और इसके बाद मेरी इस आज्ञा को शीघ्र ही मुझे वापस लौटाना । चित्त सारथी की इस आज्ञा को सुनकर वे उद्यानपालक हर्षित हुए, सन्तुष्ट हुए यावत् विकसितहृदय होते हुए दोनों हाथ जोड़ यावत्-उसकी आज्ञा को विनयपूर्वक स्वीकार किया । [५८] तत्पश्चात् चित्त सारथी सेयविया नगरी में आ पहँचा । सेयविया नगरी के मध्य भाग में प्रविष्ट हुआ । जहाँ प्रदेशीराजा का भवन व बाह्य उपस्थानशाला थी, वहाँ आया । घोड़ों को रोका, रथ को खड़ा किया, रथ से नीचे उतरा और उस महार्थक यावत् भेंट को लेकर जहाँ प्रदेशी राजा था, वहाँ पहुँच कर दोनों हाथ जोड़ यावत् जय-विजय शब्दों से वधाकर प्रदेशी राजा के सन्मख उस महार्थक यावत उपस्थित किया । इसके बाद प्रदेशी राजा ने चित्त सारथी से वह महार्थक यावत् भेंट स्वीकार की और सत्कार-सम्मान करके चित्त सारथी को विदा किया । चित्त सारथी हृष्ट यावत् विकसितहृदय हो प्रदेशी राजा के पास से निकला और जहाँ चार घंटों वाले अश्वरथ, अश्वरथ पर आरूढ़ हुआ तथा सेयविया नगरी के बीचों-बीच से गुजर कर अपने घर आया । रथ से नीचे उतरा । स्नान करके यावत् श्रेष्ठ प्रासाद के ऊपर जोरजोर से बजाये जा रहे मृदंगों की ध्वनिपूर्वक उत्तम तरुणियों द्वारा किये जा रहे बत्तीस प्रकार के नाटकों आदि के नृत्य, गान और क्रीड़ा को सुनता, देखता और हर्षित होता हुआ मनोज्ञ शब्द, स्पर्श यावत् विचरने लगा । [५९] तत्पश्चात् किसी समय प्रातिहारिक पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक आदि उनउनके स्वामियों को सौंपकर केशी कुमारश्रमण श्रावस्ती नगरी और कोष्ठक चैत्य से बाहर निकले । पांच सौ अन्तेवासी अनगारों के साथ यावत् विहार करते हुए जहाँ केकयधर्म जनपद था, जहाँ सेयविया नगरी थी और उस नगरी का मृगवन नामक उद्यान था, वहाँ आये । यथाप्रतिरूप अवग्रह लेकर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे । तत्पश्चात् सेयविया नगरी के श्रृंगाटकों आदि स्थानों पर लोगों में बातचीत होने लगी यावत् परिषद् वंदना करने निकली । वे उद्यानपालक भी इस संवाद को सुनकर और समझ कर हर्षित, सन्तुष्ट हुए यावत् विकसितहृदय होते हुए जहाँ केशी कुमारश्रमण थे, वहाँ आकर केशी कुमारश्रमण को वन्दना की, नमस्कार किया एवं यथाप्रतिरूप अवग्रह प्रदान की । प्रातिहारिक यावत् संस्तारक आदि ग्रहण करने के लिये उपनिमंत्रित किया । इसके बाद उन्होंने नाम एवं गोत्र पूछकर फिर एकान्त में वे परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार बातचीत करने लगे-'देवानुप्रियो ! चित्त सारथी जिनके दर्शन की आकांक्षा करते हैं,
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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