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________________ राजप्रश्न- २४ तत्पश्चात् सभी देवकुमारों और देवकुमारियों ने इन चतुर्विध वादित्रों को बजाया अनन्तर उन ने उत्क्षिप्त, पादान्त, मंदक और रोचितावसान रूप चार प्रकार का संगीत गाया । तत्पश्चात् उन ने अंचित, रिभित, आरभट एवं भसोल इन चार प्रकार की नृत्यविधियों को दिखाया । तत्पश्चात् उन ने चार प्रकार के अभिनय प्रदर्शित किये, यथा-दान्तिक, प्रात्यंतिक, सामान्यतोविनिपातनिक और अन्तर्मध्यावसानिक | २२१ तत्पश्चात् उन सभी देवकुमारों और देवकुमारियों ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव प्रदर्शक बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधियों को दिखाकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण- प्रदक्षिणा की । वन्दन - नमस्कार करने के पश्चात् जहाँ अपना अधिपति सूर्याभदेव था वहाँ आये । दोनों हाथ जोड़कर सिर पर आवर्तपूर्वक मस्तक पर अंजलि करके सूर्याभदेव को 'जय विजय' से बधाया और आज्ञा वापस सौंपी। [२५] तत्पश्चात् उस सूर्याभदेव ने अपनी सब दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव को समेट लिया और क्षणभर में एकाकी बन गया । इसके बाद सूर्याभ देव ने श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा की, वन्दन - नमस्कार किया । अपने पूर्वोक्त परिवार सहित जिस यान से आया था उसी दिव्य यान पर आरूढ़ हुआ । जिस दिशा से आया था, उसी ओर लौट गया । [२६] तदनन्तर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन- नमस्कार किया। विनयपूर्वक इस प्रकार पूछा- हे भगवन् ! सूर्याभदेव की वह सब पूर्वोक्त दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवधुति, दिव्य देवानुभाव प्रभाव कहां चला गया ? कहाँ प्रविष्ट हो गया - समा गया ? हे गौतम ! सूर्याभदेव द्वारा रचित वह सब दिव्य देव ऋद्धि आदि उसके शरीर में चली गई, शरीर में प्रविष्ट हो गई । हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि शरीर में चली गई, शरीर में अनुप्रविष्ट हो गई ? हे गौतम! जैसे कोई एक भीतर - बाहर गोबर आदि से लिपी, बाह्य प्राकार - से घिरी हुई, मजबूत किवाड़ों से युक्त गुप्त द्वारवाली निर्वात गहरी, विशाल कूटाकारशाला हो । उस कूटाकार शाला के निकट एक विशाल जनसमूह बैठा हो । उस समय वह जनसमूह आकाश में एक बहुत बड़े मेघपटल को अथवा प्रचण्ड आंधी को आता हुआ देखे तो जैसे वह उस कूटाकार शाला के अंदर प्रविष्ट हो जाता है, उसी प्रकार हे गौतम! सूर्याभदेव की वह सब दिव्य देवऋद्धि आदि उसके शरीर में प्रविष्ट हो गई- अन्तर्लीन हो गई है, ऐसा मैंने कहा है । [२७] हे भगवन् ! उस सूर्याभदेव का सूर्याभ नामक विमान कहाँ पर कहा है ? हे गौतम ! जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण दिशा में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के रमणीय समतल भूभाग से ऊपर ऊर्ध्वदिशा में चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण नक्षत्र और तारा मण्ड आगे भी ऊंचाई बहुत से सैकड़ों योजनों, हजारों योजनों, लाखों, करोड़ों योजनों और सैकड़ों करोड़, हजारों करोड़, लाखों करोड़ योजनों, करोड़ों करोड़ योजन को पार करने के बाद प्राप्त स्थान पर सौधर्मकल्प नाम का कल्प है - वह सौधर्मकल्प पूर्व-पश्चिम लम्बा और उत्तर-दक्षिण विस्तृत है, अर्धचन्द्र के समान, सूर्य किरणों की तरह अपनी द्युति से सदैव चमचमाता, असंख्यात कोडाकोडि योजन प्रमाण उसकी लम्बाई-चौड़ाई तथा असंख्यात कोटाकोटि योजन प्रमाण उसकी परिधि है । उस सौधर्मकल्प में बत्तीस लाख विमान बताये हैं । वे सभी विमानावास
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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