SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजप्रश्नीय-१० २०९ वाला, लांघने-कूदने-वेगपूर्वक गमन एवं मर्दन करने में समर्थ, कलाविज्ञ, दक्ष, पटु, कुशल, मेधावी एवं कार्यनिपुण भृत्यदारक सीकों से बनी अथवा मूठवाली अथवा बांस की सीकों से बनी बुहारी को लेकर राजप्रांगण, अन्तःपुर, देवकुल, सभा, प्याऊ, आराम को बिना किसी घबराहट चपलता सम्भ्रम और आकुलता के निपुणतापूर्वक चारों तरफ से प्रमार्जित करता है, वैसे ही सूर्याभदेव के उन आभियोगिक देवों ने भी संवर्तक वायु की विकुर्वणा की । आसपास चारों ओर एक योजन भूभाग में जो कुछ भी घास पत्ते आदि थे उन सभी को चुनचुनकर एकान्त स्थान में ले जाकर फेंक दिया और शीघ्र ही अपने कार्य से निवृत्त हुए । इसके पश्चात् उन आभियोगिक देवों ने दुबारा वैक्रिय समुद्घात किया । जैसे कोई तरुण यावत् कार्यकुशल सींचनेवाला नौकर जल से भरे एक बड़े घड़े, वारक को लेकर आरामफुलवारी यावत् परव को बिना किसी उतावली के यावत् सब तरफ से सींचता है, इसी प्रकार से सूर्याभदेव के उन आभियोगिक देवों ने आकाश में घुमड़-घुमड़कर गरजनेवाले और बिजलियों की चमचमाहट से युक्त मेघों की विक्रिया की और चारों ओर एक योजन प्रमाण गोलाकार भूमि में इस प्रकार से सुगन्धित गंधोदक बरसाया कि जिससे न भूमि जलबहुल हुई, न कीचड़ हआ । इस प्रकार की मेघ वर्षा करके उस स्थान को निहितरज, नष्टरज, भ्रष्टरज, उपशांतरज, प्रशांत रज वाला बना दिया । ऐसा करके वे अपने कार्य से विरत हुए । तदनन्तर उन आभियोगिक देवों ने तीसरी बार वैक्रिय समुद्घात करके जैसे कोई तरुण यावत् कार्यकुशल मालाकारपुत्र एक बड़ी पुष्पछादिका, पुष्पपटलक, अथवा पुष्पचंगेरिका से कचग्रहवत् फूलों को हाथ में लेकर छोड़े गए पंचरंगे पुष्पपुंजों को बिखेर कर रज-प्रांगण यावत् परख को सब तरफ से समलंकृत कर देता है उसी प्रकार से पुष्पवर्षक बादलों की विकुर्वणा की । वे अभ्र-बादलों की तरह गरजने लगे, यावत् योजन प्रमाण गोलाकार भूभाग में दीप्तिमान जलज और स्थलज पंचरंगे पुष्पों को प्रभूत मात्रा में इस तरह बरसाया कि सर्वत्र उनकी ऊँचाई एक हाथ प्रमाण हो गई एवं डंडियाँ नीचे और पंखुड़ियां ऊपर रहीं । पुष्पवर्षा करने के पश्चात् मनमोहक सुगन्धवाले काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दुरुष्क, तरुष्क-लोभान और धूप को जलाया । उनकी मनमोहक सुगन्ध से सारा प्रदेश महकने लगा, श्रेष्ठ सुगन्ध के कारण सुगन्ध की गुटिका जैसा बन गया । दिव्य एवं श्रेष्ठ देवों के अभिगमन योग्य हो गया । इस प्रकार से स्वयं करके और दूसरों से करवा करके उन्होंने अपने कार्य को पूर्ण किया । इसके पश्चात् वे आभियोगिक देव श्रमण भगवान् महावीर के पास आये । श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार यावत् वंदन नमस्कार करके, आम्रशालवन चैत्य से निकले, उत्कृष्ट गति से यावत् चलते-चलते जहाँ सौधर्म स्वर्ग था, सूर्याभ विमान था, सुधर्मा सभा थी और उसमें भी जहाँ सूर्याभदेव था वहाँ आये और दोनों हाथ जोड़ आवर्त पूर्वक मस्तक पर अंजलि करके जय विजय घोष से सूर्याभदेव का अभिनन्दन करके आज्ञा को वापस लौटाया। [११] आभियोगिक देवों से इस अर्थ को सुनने के पश्चात् सूर्याभदेव ने हर्षित, सन्तुष्ट यावत् हर्षातिरेक से प्रफुल्ल-हृदय हो पदाति-अनीकाधिपति को बुलाया और बुलाकर कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही सूर्याभ विमान की सुधर्मा सभा में स्थित मेघसमूह जैसी गम्भीर मधुर शब्द करनेवाली एक योजन प्रमाण गोलाकार सुस्वर घंटा को तीन बार बजा-बजाकर उच्चातिउच्च स्वर में घोषणा करते हुए यह कहो कि हे सूर्याभ विमान में रहने वाले देवो और देवियो ! सूर्याभदेव आज्ञा देता है कि देवो ! जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र में स्थित आमलकल्पा नगरी के आम्रशालवन चैत्य में विराजमान श्रमण भगवान् महावीर की वंदना करने के लिए सूर्याभदेव 6/14/
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy