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________________ राजप्रश्नी-५ २०७ समान, पुरुषों में श्रेष्ठ कमल समान, पुरुषों में उत्तम गंधहस्ती समान, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करनेवाले, लोक में प्रदीप के समान, लोक में विशेष उद्योत करने वाले, अभय देने वाले श्रद्धा-ज्ञान-रूप नेत्र के दाता, धर्म मार्ग के दाता, जीवों दया का उपदेशक, शरणदाता, बोधिदाता, धर्म दाता, धर्म उपदेशक, धर्म नायक, धर्म सारथी, चतुर्गति रूप संसार का अंत करने वाले धर्म चक्रवती, अव्याघात केवल-ज्ञान- दर्शन के धारक, छद्म के नाशक, रागादि जीतनेवाले, जीतने के लिये अन्य को प्रेरित करनेवाले, संसार - सागर से स्वयं तिरे हुए और दूसरों को तिरने का उपदेश देने वाले, स्वयं कर्म-बंधन से मुक्त और दूसरों को मुक्त करनेवाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी शिव, कल्याण रूप, अचल को प्राप्त हुए, अरुज, अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावृत्ति - सिद्धि गति नामक स्थान में स्थित भगवन्तों को नमस्कार हो । धर्म की आदि करने वाले, तीर्थंकर यावत् सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त करने की ओर अग्रेसर श्रमण भगवान् महावीर को मेरा नमस्कार हो । तत्रस्थ बिराजमान भगवान् को अत्रस्थ मैं वंदना करता हूँ । वहाँ पर रहे हुए वे भगवान् यहाँ रहे हुए मुझे देखते हैं । इस प्रकार स्तुति करके वन्दन - नमस्कार किया । फिर पूर्व दिशा की ओर मुख करके श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया । [६] तत्पश्चात् उस सूर्याभ देव के मन में इस प्रकार का यह आध्यात्मिक चिन्तित, प्रार्थित, इष्ट और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ । जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में स्थित आमलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में यथाप्रतिरूप अवग्रह को लेकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर बिराजमान हैं मेरे लिये श्रेय रूप हैं । जब तथारूप भगवन्तों के मात्र नाम और गोत्र के श्रवण करने का ही महाफल होता है तो फिर उनके समक्ष जाने का, उनको वंदन करने का, नमस्कार करने का, उनसे प्रश्न पूछने का और उनकी उपासना करने का प्रसंग मिले तो उसके विषय में कहना ही क्या है। I । आर्य पुरुष के एक भी धार्मिक सुवचन सुनने का ही जब महाफल प्राप्त होता है तब उनके पास से विपुल अर्थ - उपदेश ग्रहण करने के महान् फल की तो बात ही क्या है ! इसलिए मैं जाऊँ और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन करूँ, नमस्कार करूँ, उनका सत्कार-सम्मान करूँ और कल्याण रूप, मंगलरूप, देवरूप और चैत्य स्वरूप भगवान् की पर्युपासना करूँ । ये मेरे लिये अनुगामी रूप से परलोक में हितकर, सुखकर क्षेमकर, निश्रेयस्कर होगी, ऐसा उसने विचार किया । विचार करके अपने आभियोगिक देवों को बुलाया और इस प्रकार कहा। [७] हे देवानुप्रियो ! यथाप्रतिरूप अवग्रह को ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा कोभावित करते हुए श्रमण भगवान् महावीर जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरतक्षेत्रवर्ती आमलकल्पा नगरी के बाहर शालवन चैत्य में विराजमान हैं । हे देवानुप्रियो ! तुम जाओ और जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित आमलकल्पा नगरी के बाहर आम्रशालवन चैत्य में बिराजमान श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार प्रदक्षिणा करो । वन्दन, नमस्कार करो । तुम अपने - अपने नाम और गोत्र उन्हें कह सुनाओ । तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर के बिराजने के आसपास चारों ओर एक योजन प्रमाण गोलाकार भूमि में घास, पत्ते, काष्ठ, कंकड़, अपवित्र, मलिन, सड़ीगली दुर्गन्धित वस्तुओं को अच्छी तरह से साफ कर दूर एकान्त स्थान में ले जाकर फैंको । इसके अनन्तर उस भूमि को पूरी तरह से साफ स्वच्छ करके इस प्रकार से दिव्य सुरभि गंधोदक की वर्षा करो कि जिसमें जल अधिक न बरसे, कीचड़ न हो । इस प्रकार की वर्षा करके उस स्थान को निहितरज, नष्टरज, भ्रष्टरज, उपशांतरज, प्रशांतरज वाला बना दो ।
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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