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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद कर रहे थे, अभिभाषण कर रहे थे, प्रज्ञापित कर रहे थे, प्ररूपित कर रहे थे - देवानुप्रियो ! आदिकर, तीर्थकर, स्वयंसंबुद्ध, पुरुषोत्तम, सिद्धि-गतिरूप स्थान की प्राप्ति हेतु समुद्यत भगवान् महावीर, यथाक्रम विहार करते हुए, ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यहाँ आये हैं, समवसृत हुए हैं । यहीं चंपा नगरी के बाहर यथोचित स्थान ग्रहण कर संयम और तप से आत्मा को अनुभावित करते हुए बिराजित हैं । हम लोगों के लिए यह बहुत ही लाभप्रद । देवानुप्रियो ! ऐसे अर्हत् भगवान् के नाम - गोत्र का सुनना भी बहुत बड़ी बात है, फिर अभिगमन, वन्दन, नमन, प्रतिपृच्छा, पर्युपासना करना - सान्निध्य प्राप्त करना - इनका तो कहना ही क्या ! सद्गुणनिष्पन्न, सद्धर्ममय एक सुवचन का श्रवण भी बहुत बड़ी बात है; फिर विपुल अर्थ के ग्रहण की तो बात ही क्या ! अतः देवानुप्रियो ! अच्छा हो, हम जाएँ और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन करें, नमन करें, उनका सत्कार करें, सम्मान करें । भगवान् कल्याण हैं, मंगल हैं, देव हैं, तीर्थस्वरूप हैं । उनकी पर्युपासना करें । यह इस भव में, परभव में हमारे लिए हितप्रद सुखप्रद, क्षान्तिप्रद तथा निश्रेयसप्रद सिद्ध होगा । १८० यों चिन्तन करते हुए बहुत से उग्रों, उग्रपुत्रों, भोगों, भोगपुत्रों, राजन्यों, क्षत्रियों, ब्राह्मणों, सुभटों, योद्धाओं, प्रशास्ताओं, मल्लकियों, लिच्छिवियों तथा अन्य अनेक राजाओं, ईश्वरों, तलवरों, माडंबिकों, कौटुम्बिकों, इभ्यों, श्रेष्ठियों, सेनापतियों एवं सार्थवाहों, इन सबके पुत्रों में से अनेक वन्दन हेतु, पूजन हेतु, सत्कार हेतु, सम्मान हेतु, दर्शन हेतु, उत्सुकता पूर्ति हेतु, अर्थविनिश्चय हेतु, अश्रुत, श्रुत, अनेक इस भाव से, अनेक यह सोचकर कि युक्ति, तर्क तथा विश्लेषणपूर्वक तत्त्व - जिज्ञासा करेंगे, अनेक यह चिन्तन कर कि सभी सांसारिक सम्बधों का परिवर्जन कर, मुण्डित होकर अगार-धर्म से आगे बढ़ अनगार-धर्म स्वीकार करेंगे, अनेक यह सोचकर कि पाँच अणुव्रत, सात शिक्षा व्रत-यों बारह व्रत युक्त श्रावक-धर्म स्वीकार करेंगे, अनेक भक्ति- अनुराग के कारण, अनेक यह सोच कर कि यह अपना वंश-परंपरागत व्यवहार है, भगवान् की सन्निधि में आने को उद्यत हुए । उन्होंने स्नान किया, नित्य कार्य किये, कौतुक, ललाट पर तिलक किया; प्रायश्चित्त, मंगलविधान किया, गले में मालाएँ धारण की, रत्नजड़े स्वर्णाभरण, हार, अर्धहार, तीन लड़ों हार, लम्बे हार, लटकती हुई करधनियाँ आदि शोभावर्धक अलंकारों से अपने को सजाया, श्रेष्ठ उत्तम वस्त्र पहेने । उन्होंने समुच्चय रूप में शरीर पर चन्दन का लेप किया । उनमें से कई घोड़ों पर, कई हाथियों पर, कई शिबिकाओं पर, कई पुरुषप्रमाण पालखियों पर सवार हुए। अनेक व्यक्ति बहुत पुरुषों द्वारा चारों ओर से घिरे हुए पैदल चल पड़े । वे उत्कृष्ट, हर्षोन्नत, सुन्दर, मधुर घोष द्वारा नगरी को लहराते, गरजते विशाल समुद्रसदृश बनाते हुए उसके बीच से गुजरे । वैसा कर, जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ आये । आकर न अधिक दूर से, न अधिक निकट से भगवान् के तीर्थकर रूप के वैशिष्ट्यद्योतक छत्र आदि अतिशय देखे । देखते ही अपने यान, वाहन, वहाँ ठहराये । यान, रथ आदि वाहन - घोड़े, हाथी आदि से नीचे उतरे । जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ आकर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिणप्रदक्षिणा की; वन्दन, नमस्कार किया । भगवान् के न अधिक दूर, न अधिक निकट स्थित हो, उनके वचन सुनने की उत्कण्ठा लिए, नमस्कार - मुद्रा में भगवान् महावीर के सामने विनयपूर्वक अंजलि बाँधे पर्युपासना करने लगे [२८] प्रवृत्ति-निवेदक को जब यह बात मालूम हुई, वह हर्षित एवं परितुष्ट हुआ । उसने स्नान किया, यावत् संख्या में कम पर बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया ।
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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