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________________ औपपातिक-३ १६५ एवं मकरन्द के लोभ से अन्यान्य स्थानों से आये हुए विविध जाति के भँवर मस्ती से गुनगुना रहे थे, जिससे वह स्थान गुंजायमान हो रहा था । वे वृक्ष भीतर से फूलों और फलों से आपूर्ण थे तथा बाहर से पत्तों से ढके थे । वे पत्तों और फूलों से सर्वथा लदे थे । उनके फल स्वादिष्ट, नीरोग तथा निष्कण्टक थे । वे तरह-तरह के फूलों के गुच्छों, लता-कुंजों तथा मण्डपों द्वारा रमणीय प्रतीत होते थे, शोभित होते थे । वहाँ भिन्न-भिन्न प्रकार की सुन्दर ध्वजाएँ फहराती थीं । चौकोर, गोल तथा लम्बी बावड़ियों में जाली-झरोखेदार सुन्दर भवन बने थे । दूर-दूर तक जाने वाली सुगन्ध के संचित परमाणुओं के कारण वे वृक्ष अपनी सुन्दर महक से मन को हर लेते थे, अत्यन्त तृप्तिकारक विपुल सुगन्ध छोड़ते थे । वहाँ नानाविध, अनेकानेक पुष्पगुच्छ, लताकुंज, मण्डप, विश्राम-स्थान, सुन्दर मार्ग थे, झण्डे लगे थे । वे वृक्ष अनेक रथों, वाहनों, डोलियों तथा पालखियों के ठहराने के लिए उपयुक्त विस्तीर्ण थे । इस प्रकार के वृक्ष रमणीय, मनोरम, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप थे । [४] उस वन-खण्ड के ठीक बीच के भाग में एक विशाल एवं सुन्दर अशोक वृक्ष था । उसकी जड़े डाभ तथा दूसरे प्रकार के तृणों से विशुद्ध थी । (वह वृक्ष उत्तम मूल यावत् रमणीय, दर्शनीय, अभिरूप, तथा प्रतिरूप था । वह उत्तम अशोक वृक्ष तिलक, लकुच, क्षत्रोप, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, अर्जुन, नीप, कटुज, कदम्ब, सव्य, पनस, दाडिम, शाल, ताल, तमाल, प्रियक, प्रियंगु, पुरोपग, राजवृक्ष, नन्दिवृक्ष-इन अनेक अन्य पादपों से सब ओर से घिरा हुआ था । उन तिलक, लकच, यावत नन्दिवक्ष-इन सभी पादपों की जड़ें डाभ तथा दूसरे प्रकार के तृणों से विशुद्ध थीं । उनके मूल, कन्द आदि दशों अंग उत्तम कोटि के थे । यों वे वृक्ष रमणीय, मनोरम, दर्शनीय, अभिरूप, तथा प्रतिरूप थे । वे तिलक, नन्दिवृक्ष आदि पादप अन्य बहुत सी पद्मलताओं, नागलताओं, अशोकलताओं, चम्पकलताओं, सहकारलताओं, पीलुकलताओं, वासन्तीलताओं तथा अतिमुक्तकलताओं से सब ओर से घिरे हुए थे । वे लताएं सब ऋतुओं में फूलती थीं यावत् वे रमणीय, मनोरम, दर्शनीय, अभिरूप तथा प्रतिरूप थीं । [५] उस अशोक वृक्ष के नीचे, उसके तने के कुछ पास एक बड़ा पृथिवी-शिलापट्टक था । उसकी लम्बाई, चौड़ाई तथा ऊंचाई समुचित प्रमाण में थी । वह काला था । वह अंजन, बादल, कृपाण, नीले कमल, बलराम के वस्त्र, आकाश, केश, काजल की कोठरी, खंजन पक्षी, भैंस के सींग, रिष्टक रत्न, जामुन के फल, बीयक, सन के फूल के डंठल, नील कमल के पत्तों की राशि तथा अलसी के फूल के सदृश प्रभा लिये हुए था । नील मणि, कसौटी, कमर पर बाँधने के चमड़े के पट्टे तथा आँखों की कनीनिका-इनके पुंज जैसा उसका वर्ण था । अत्यन्त स्निग्ध था । उसके आठ कोने थे । दर्पण के तल समान सुरम्य था । भेड़िये, बैल, घोड़े, मनुष्य, मगर, पक्षी, साँप, किन्नर, रुरु, अष्टापद, चमर, हाथी, वनलता और पद्मलता के चित्र उस पर बने हुए थे । उसका स्पर्श मृगछाला, कपास, बूर, मक्खन तथा आक की रूई के समान कोमल था | वह आकार में सिंहासन जैसा था । इस प्रकार वह शिलापट्टक मनोरम, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था । [६] चम्पा नगरी में कूणिक नामक राजा था, जो वहाँ निवास करता था । वह महाहिमवान् पर्वत के समान महत्ता तथा मलय, मेरु एवं महेन्द्र के सदृश प्रधानता या विशिष्टता लिये हुए था । वह अत्यन्त विशुद्ध चिरकालीन, था । उसके अंग पूर्णतः राजोचित लक्षणों से सुशोभित थे । वह बहुत लोगों द्वारा अति सम्मानित और पूजित था, सर्वगुणसमृद्ध,
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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