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________________ विपाकश्रुत- १/२/१६ १२७ वह बहुत पापकर्मों का उपार्जन करके १२१ वर्ष की परम आयु को भोगकर मृत्यु को प्राप्त होकर इस रत्नप्रभा नरक में नारक के रूप में उत्पन्न होगा । वहाँ से सरीसृप आदि प्राणियों की योनियों में जन्म लेगा । वहाँ से उसका संसार- भ्रमण मृगापुत्र की तरह होगा यावत् पृथिवीकाय आदि में जन्म लेगा । वहाँ से इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष की चम्पा नगरी में भैंसा के रूप में जन्म लेगा । वहाँ गोष्ठिकों के द्वारा मारे जाने पर उसी नगरी के श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप में उत्पन्न होगा । वहाँ पर बाल्यावस्था को पार करके यौवन अवस्था को प्राप्त होता हुआ वह तथारूप स्थविरों के पास शंका कांक्षा आदि दोषों से रहित बोधिलाभ को प्राप्तकर अनगार धर्म को ग्रहण करेगा । वहाँ से कालमास में कालकर सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा। यावत् मृगापुत्र के समान कर्मों का अन्त करेगा । अध्ययन - २ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण अध्ययन-३- - अभग्नसेन 1 [१८] तृतीय अध्ययन की प्रस्तावना पूर्ववत् । उस काल उस समय में पुरिमताल नगर था । वह भवनादि की अधिकता से तथा धन-धान्य आदि से परिपूर्ण था । उस पुरिमताल नगर के ईशान कोण में अमोघदर्शी नामक उद्यान था । उस में अमोघदर्शी नामक यक्ष का एक यक्षायतन था । पुरिमताल नगर में महाबल नामक राजा राज्य करता था | उस पुरिमताल नगर के ईशान कोण में सीमान्त पर स्थित अटवी में शालाटवी नाम की चोरपल्ली थी जो पर्वतीय भयंकर गुफाओं के प्रातभाग पर स्थित थी । बांस की जाली की बनी हुई बाड़रूप प्राकार से घिरी हुई थी । छिन्न पर्वत के ऊँचे-नचे गर्तरूप खाईवाली थी । उसमें पानी की पर्याप्त सुविधा थी । उसके बाहर दूर-दूर तक पानी अप्राप्य था । उसमें भागने वाले मनुष्यों के मार्गरूप अनेक गुप्तद्वार थे । जानकार व्यक्ति ही उसमें निर्गम कर सकता था। बहुत से मोष - चोरों से चुराई वस्तुओं को वापिस लाने के लिये उद्यत मनुष्यों द्वारा भी उसका पराजय नहीं किया जा सकता था । उस शालाटवी चोरपल्ली में विजय नाम का चोर सेनापति रहता था । वह महा अधर्मी था यावत् उसके हाथ सदा खून से रंगे रहते थे । उसका नाम अनेक नगरों में फैला हुआ था । वह शूरवीर, दृढप्रहारी, साहसी, शब्दबेधी तथा तलवार और लाठी का अग्रगण्य योद्धा था । वह सेनापति उस चोरपल्ली में पांच सौ चोरों का स्वामित्व, अग्रेसरत्व, नेतृत्व, बड़प्पन करता हुआ रहता था । [१९] तदनन्तर वह विजय नामक चोरसेनापति अनेक चोर, पारदारिक, ग्रन्थिभेदक, सन्धिच्छेदक, धूर्त वगैरह लोग तथा अन्य बहुत से छिन्न भिन्न तथा शिष्टमण्डली से बहिष्कृत व्यक्तियों के लिये बांस के वन के समान गोपक या संरक्षक था । वह विजय चोरसेनापति पुरिमताल नगर के ईशान कोणगत जनपद को अनेक ग्रामों को नष्ट करने से, अनेक नगरों का नाश करने से, गाय आदि पशुओं के अपहरण से, कैदियों को चुराने से, पथिकों को लूटने से, खात- सेंध लगाकर चोरी करने से, पीड़ित करता हुआ, विध्वस्त करता हुआ, तर्जित, ताडित, स्थान- धन तथा धान्यादि से रहित करता हुआ तथा महाबल राजा के राजदेयकरमहसूल को भी बारम्बार स्वयं ग्रहण करता हुआ समय व्यतीत करता था । उस विजय नामक चोरसेनापति की स्कन्दश्री नाम की परिपूर्ण पांच इन्द्रियों से युक्त
SR No.009784
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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