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________________ ८४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद किसी साधु के हाथ का मेधकुमार के साथ संघट्टन हुआ, इसी प्रकार किसी के पैर की मस्तक से और किसी के पैर की पेट से टक्कर हुई । कोई-कोई मेघकुमार को लांघ कर निकले और किसी-किसी ने दो-तीन बार लांघा । किसी-किसी ने अपने पैरों की रज से उसे भर दिया या पैरों के वेग से उड़ती हुई रज से वह भर गया । इस प्रकार लम्बी रात्रि में मेघकुमार क्षण भर भी आँख बन्द नहीं कर सका ।। तब मेघकुमार के मन में इस प्रकार का अध्वसाय उत्पन्न हुआ-'मैं श्रेणिक राजा का पुत्र और धारिणी देवी का आत्मज मेघकुमार हूँ । गूलर के पुष्प के समान मेरा नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है । जब मैं घर में रहता था, तब श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा आदर करते थे, 'यह कुमार ऐसा है' इस प्रकार जानते थे, सत्कार-सन्मान करते थे, जीवादि पदार्थों को, उन्हें सिद्ध करने वाले हेतुओं को, प्रश्नों को, कारणों को और व्याकरणों को कहते थे और बार-बार कहते थै । इष्ट और मनोहर वाणी से मेरे साथ आलाप-संलाप करते थे । किन्तु जब से मैंने मुंडित होकर, गृहवास से निकलकर साधु-दीक्षा अंगीकार की है, तब से लेकर साधु मेरा आदर नहीं करते, यावत् आलाप-संलाप नहीं करते । तिस पर भी वे श्रमण निर्ग्रन्थ पहली और पिछली रात्रि के समय वाचना, पृच्छना आदि के लिए जाते-आते मेरे संस्तारक को लांघते हैं और मैं इतनी लम्बी रात भर में आँख भी न मीच सका । अतएव कल रात्रि के प्रभात रूप होने पर यावत् तेज जाज्वल्यमान होने पर श्रमण भगवान् महावीर से आज्ञा लेकर पुनः गृहवास में वसना ही मेरे लिए अच्छा है । मेघकुमार ने ऐसा विचार किया । विचार करके आर्तध्यान के कारण दुःख से पीड़ित और विकल्प-युक्त मानस को प्राप्त होकर मेघकुमार न वह रात्रि नरक की भाँति व्यतीत की । रात्रि व्यतीत करके प्रभात होने पर, सूर्य के तेज से जाज्वल्यमान होने पर, जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ आया । आकर तीन वार आदक्षिण प्रदक्षिणा की । प्रदक्षिणा करके भगवान् को वन्दन किया, नमस्कार किया । वन्दन नमस्कार करके यावत् भगवान् की पर्युपासना करने लगा । [३७] तत्पश्चात् 'हे मेघ' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने मेघकुमार से कहा-'हे मेघ ! तुम रात्रि के पहले और पिछले काल के अवसर पर, श्रमण निर्ग्रन्थों के वाचना पृच्छना आदि के लिए आवागमन करने के कारण, लम्बी रात्रि पर्यन्त थोड़ी देर के लिए भी आँख नहीं मीच सके । मेघ ! तब तुम्हारे मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ - जब मैं गृहवास में निवास करता था, तब श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा आदर करते थे यावत् मुझे जानते थे; परन्तु जब से मैंने मुंडित होकर, गृहवास से निकल कर साधुता की दीक्षा ली है, तब से श्रमण निर्ग्रन्थ न मेरा आदर करते हैं, न मुझे जानते हैं । इसके अतिरिक्त श्रमण रात्रि में कोई वाचना के लिए यावत् आते-जाते मेरे संथारा को लांघते हैं यावत् मुझे पैरों की रज से भरते हैं । अतएव मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि कल प्रभात होने पर श्रमण भगवान् महावीर से पूछ कर मैं पुनः गृहवास में बसने लगूं ।' तुमने इस प्रकार का विचार करके आर्तध्यान के कारण दुःख से पीडित एवं संकल्प-विकल्प से युक्त मानसवाले होकर नरक की तरह रात्रि व्यतीत की है । रात्रि व्यतीत करके शीघ्रतापूर्वक मेरे पास आए हो ! हे मेघ ! यह अर्थ समर्थ है मेघकुमार ने उत्तर दिया-हाँ, यह अर्थ समर्थ है । भगवान् बोले-हे मेघ ! इससे पहले इतीत तीसरे भव में वैताढ्य पर्वत के पादमूल में
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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