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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद अनगारिता की प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूँ-मुनिदीक्षा लेना चाहता हूँ । तब धारिणी देवी इस अनिष्ट, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम, पहले कभी न सुनी हुई, कठोर वाणी को सुनकर और हृदय में धारण करके महान् पुत्र-वियोग के मानसिक दुःख से पीड़ित हुई । उसके रोमकूपों में पसीना आकर अंगों से पसीना झरने लगा । शोक की अधिकता से उसके अंग कांपने लगे । वह निस्तेज हो गई । दीन और विमनस्क हो गई । हथेली से मली हुई कमल की माला के समान हो गई । 'मैं प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूँ' यह शब्द सुनने के क्षण में ही वह दुःखी और दुर्वल हो गई । वह लावण्यरहित हो गई, कान्तिहीन हो गई, श्रीविहीन हो गई, शरीर दुर्बल होने से उसके पहने हुए अलंकार अत्यन्त ढीले हो गये, हाथों में पहने हुए उत्तम वलय खिसक कर भूमि पर जा पड़े और चूर-चूर हो गये । उसका उत्तरीय वस्त्र खिसक गया। सुकुमार केशपाश बिखर गया । मूर्च्छा के वश होने से चित्त नष्ट हो गया वह बेहोश हो गई। परशु से काटी हुई चंपकलता के समान तथा महोत्सव सम्पन्न हो जाने के पश्चात् इन्द्रध्वज के समान प्रतीत होने लगी । उसके शरीर के जोड़ ढीले पड़ गये । ऐसी अवस्था होने से वह धारिणी देवी सर्व अंगों से धस्-धड़ाम से पृथ्वीतल पर गिर पड़ी । तत्पश्चात् वह धारिणी देवी, संभ्रम के साथ शीघ्रता से सुवर्णकलश के मुख से निकली हुई शीतल की निर्मल धारा से सिंचन की गई अर्थात् उस पक ठंडा जल छिड़का गया । अतएव उसका शरीर शीतल हो गया । उत्पेक्षक से, तालवृन्त से तथा वीजनक से उत्पन्न हुई तथा जलकणों से युक्त वायु से अन्तःपुर के परिजनों द्वारा उसे आश्वासन दिया गया । तब वह होश में आई । अब धारिणी देवी मोतियों की लड़ी के समान अश्रुधार से अपने स्तनों को सींचने भिगोने लगी । वह दयनीय, विमनस्क और दीन हो गई । वह रुदन करती हुई, क्रन्दन करती हुई, पसीना एवं लार टपकाती हुई, हृदय में शोक करती हुई और विलाप करती हुई मेघकुमार से इस प्रकार कहने लगी ७६ [३२] हे पुत्र ! तू हमारा इकलौता बेटा है । तू हमें इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ हैं, मणाम है तथा धैर्य और विश्राम का स्थान है । कार्य करने में सम्मत है, बहुत कार्य करने में बहुत माना हुआ है और कार्य करने के पश्चात् भी अनुमत है । आभूषणों की पेटी से समान है । मनुष्यजाति में उत्तम होने के कारण रत्न है । रत्न रूप है । जीवने की उच्छ्वास के समान है । हमारे हृदय में आनन्द उत्पन्न करनेवाला है । गूलर के फूल के समान तेरा नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है तो फिर दर्शन की तो बात ही क्या है । हे पुत्र ! हम क्षण भर के लिए भीतेरा वियोग नहीं सहन करना चाहते । अतएव हे पुत्र ! प्रथम तो जब तक हम जीवित है, तब तक मनुष्य सम्बन्धी विपुल काम भोगों को भोग । फिर जब हम कालगत हो जाएँ और तू परिपक्क उर्म का हो जाय तेरी युवावस्था पूर्ण हो जाय, कुल-वंश रूप तंतु का कार्य वृद्धि को प्राप्त हो जाय, जब सांसारिक कार्य की अपेक्षा न रहे, उस समय तू श्रमण भगवान् महावीर के पास मुण्डित होकर, गृहस्थी का त्याग करके प्रव्रज्या अंगीकार कर लेना ' तत्पश्चात् माता-पिता के इस प्रकार कहने पर मेघकुमार ने माता-पिता से कहा - 'हे माता-पिता ! आप मुजसे यह जो कहते हैं कि - हे पुत्र ! तुम हमारे इकलौते पुत्र हो, इत्यादि पूर्ववत्, यावत् सांसारिक कार्य से निरपेक्ष होकर श्रमण भगवान् महावीर के समीप प्रव्रजित
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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