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________________ १९४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद दासी का प्रश्न सुन कर सुकुमालिका दारिका ने दासचेटी से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! सागरदारक मुझे सुख से सोया जान कर मेरे पास से उठा और वासगृह का द्वार उघाड़ कर यावत् वापिस चला गया । तदनन्तर मैं थोड़ी देर बाद उठी यावत् द्वारा उघाड़ा देखा तो मैंने सोचा-'सागर चला गया ।' इसी कारण भग्नमनोरथ होकर मैं चिन्ता कर रही हूँ ।' दासचेटी सुकुमालिका दारिका के इस अर्थ को सनकर वहाँ गई जहाँ सागरदत्त था । वहाँ जाकर उसने सागरदत्त सार्थवाह से यह वृत्तान्त निवेदन किया । दासचेटी से यह वृत्तान्त सुन-समझ कर सागरदत्त कुपित होकर जहाँ जिनदत्त सार्थवाह का घर था, वहाँ पहुँचा । उसने जिनदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहा–'देवानुप्रिय ! क्या यह योग्य है ? -उचित है ? यह कुल के अनुरूप और कुल के सदश है कि सागरदारक सुकुमालिका दारिका को, जिसका कोई दोष नहीं देखा गया और जो पतिव्रता है, छोड़कर यहाँ आ गया है ?' यह कह कर बहुत-सी खेद युक्त क्रियाएँ करके तथा रुदन की चेष्टाएँ करके उसने उलहना दिया । तब जिनदत्त, सागरदत्त के इस अर्थ को सुनकर जहाँ सागरदारक था, वहाँ आकर सागरदारक से बोला-'हे पुत्र ! तुमने बुरा किया जो सागरदत्त के घर से यहाँ एकदम चले आये। अतएव हे पुत्र ! जो हुआ सो हुआ, अब तुम सागरदत्त के घर चले जाओ ।' तब सागर पुत्र ने जिनदत्त से इस प्रकार कहा-'हे तात ! मुझे पर्वत से गिरना स्वीकार है, वृक्ष से गिरना स्वीकार है, मरुप्रदेश में पड़ना स्वीकार है, जल में डूब जाना, आग में प्रवेश करना, विषभक्षण करना, अपने शरीर को श्मशान में या जंगल में छोड़ देना कि जिससे जानवर या प्रेत खा जाएँ, गृध्र-पृष्ठ मरण, इसी प्रकार दीक्षा ले लेना या परदेश में चला जाना स्वीकार है, परन्तु मैं निश्चय ही सागरदत्त के घर नहीं जाऊँगा ।' उस समय सागरदत्त सार्थवाह ने दीवार के पीछे से सागर पुत्र के इस अर्थ को सुन लिया । वह ऐसा लज्जित हुआ कि धरती फट जाय तो मैं उसमें समा जाऊँ । वह जिनदत्त के घर से बाहर निकल आया । अपने घर आया । सुकुमालिका पुत्री को बुलाया और उसे अपनी गोद में बिठलाया । फिर उसे इस प्रकार कहा-'हे पुत्री ! सागरदारक ने तुझे त्याग दिया तो क्या हो गया ? अब तुझे मैं ऐसे पुरुष को दूंगा, जिसे तू इष्ट, कान्त, प्रिय और मनोज्ञ होगी ।' इस प्रकार कहकर सुकुमालिका पुत्री को इष्ट वाणी द्वारा आश्वासन देकर उसे विदा किया । तत्पश्चात् सागरदत्त सार्थवाह किसी समय ऊपर भवन की छत पर सुखपूर्वक बैठा हुआ बार-बार राजमार्ग को देख रहा था । उस समय सागरदत्त ने एक अत्यन्त दीन भिखारी पुरुष को देखा । वह साँधे हुए टुकड़ों का वस्त्र पहने था । उसके साथ में सिकोरे का टुकड़ा और पानी के घड़े का टुकड़ा था । उसके बाल बिखरे हुए अस्तव्यस्त थे । हजारों मक्खियाँ उसके मार्ग का अनुसरण कर रही थीं । तत्पश्चात् सागरदत्त ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जाओ और उस द्रमक पुरुष को विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाध का लोभ देकर घर के भीतर लाओ । सिकोरे और घड़े के टुकड़े को एक तरफ फैंक दो । आलंकारिक कर्म कराओ । फिर स्नान करवाकर, बलिकर्म करवा कर, यावत् सर्व अलंकारों से विभूषित करो । फिर मनोज्ञ अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य भोजन जिमाओ । भोजन जिमाकर मेरे निकट ले आना ।' तब उन कौटुम्बिक पुरुषों ने सागरदत्त की आज्ञा अंगीकार की । वे उस भिखारी पुरुष के
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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