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________________ १८८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद अपने काम मे संलग्न हो गए । तत्पश्चात् स्नान की हुई और विभूषित हुई उन ब्राह्मणियों ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार जीमा । जीमकर वे अपने-अपने घर चली गई । अपने-अपने काम में लग गई। [१५९] उस काल और उस समय में धर्मधोष नामक स्थविर यावत् बहुत बड़े परिवार से साथ चम्पा नामक नगरी के सुभूमिभाग उद्यान में पधारे । साधु के योग्य उपाश्रय की याचना करके, यावत् विचरने लगे । उन्हें वन्दना करने के लिए परिषद् निकली । स्थविर मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया । परिषद् वापिस चली गई । धर्मघोष स्थविर के शिष्य धर्मरुचि नामक अनगार थे । वह उदार-प्रधान अथवा उराल-उग्र तपश्चर्या करने के कारण पार्श्वस्थों के लिए अति भयानक लगते थे । वे धर्मरुचि अनगार मास-मास का तप करते हुए विचरते थे । किसी दिन धर्मरुचि अनगार के मासक्षपण के पारणा का दिन आया । उन्होंने पहली पौरुषी में स्वाध्याय किया, दूसरी में ध्यान किया इत्यादि सब गौतमस्वामी समान कहना, तीसरे प्रहर में पात्रों का प्रतिलेखन करके उन्हें ग्रहण किया । धर्मघोष स्थविर से भिक्षागोचरी लाने की आज्ञा प्राप्त की यावत् वे चम्पा नगरी में उच्च, नीच और मध्यम कुलों में भ्रमण करते हुए नागश्री ब्राह्मणी के घर में प्रविष्ट हुए । तब नागश्री ब्राह्मणी ने धर्मरुचि अनगार को आते देखा । वह उस बहुत-से मसालों वाले और तेल से युक्त तुंबे के शाक को निकाल देने का योग्य अवसर जानकर हृष्ट-तुष्ट हुआ और खड़ी हुआ । भोजनगृह में गई । उसने वह तिक्त और कडुवा बहुत तेल वाला सब-का सब शाक धर्मरुचि अनगार के पात्र में डाल दिया । धर्मरुचि अनगार ‘आहार पर्याप्त है' ऐसा जानकर नागश्री ब्राह्मणी के घर से बाहर निकले । चम्पा नगरी के बीचोंबीच होकर सुभूमिभाग उद्यान में आए । उन्होंने धर्मघोष स्थविर के समीप ईर्यापथ का प्रतिक्रमण करके अन्न-पानी का प्रतिलेखन किया । हाथ में अन्न-पानी लेकर स्थविर गुरु को दिखलाया । उस समय धर्मघोष स्थविर ने, उस शरद्क्रतु संबन्धी, तेलसे व्याप्त शाक की गंध से उद्विग्न होकर-पराभव को प्राप्त होकर, उस तेलसे व्याप्त खास में से एक बूंद हाथ में ली, उसे चखा । तब उसे तिक्त, खारा, कड़वा, अखाद्य, अभोज्य और विष के समान जानकर धर्मरुचि अनगार से कहा-'देवानुप्रिय ! यदि तुम यब तेल वाला तुंबे का खास खाओगे तो तुम असमय में ही जीवन से रहित हो जाओगे, अतएव हे देवानुप्रिय ! तुम इस को मत खाना । ऐसा न हो कि असमय में ही तुम्हारे प्राण चले जाएँ । अतएव हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ और यह तुंबे का शाक एकान्त, आवागमन से रहित, अचित्त भूमि में परठ दो । दूसरा प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य ग्रहण करके उसका आहार करो ।' तत्पश्चात् धर्मघोष स्थविर के ऐसा कहने पर धर्मरुचि अनगार धर्मघोष स्थविर के पास से निकले । सुभूमिभाग उद्यान से न अधिक दूर न अधिक समीप उन्होंने स्थंडिल (भूभाग) की प्रतिलेखना करके उस तुंबे के शाक की बूंद ली और उस भूभाग में डाली । तत्पश्चात् उस शरद् संबन्धी तिक्त, कटुक और तेल से व्याप्त शाक की गंध से बहुत-हजारों कीडिया वहाँ आ गई । उनमें से जिस कीड़ी ने जैसे ही शाक खाया, वैसे ही वह असमय में ही मृत्यु को प्राप्त हुई । तब धर्मरुचि अनगार के मन में इस प्रकार विचार उत्पन्न हुआ-यदि इस शाक का एक बिन्दु डालने पर अनेक हजार कीड़ियाँ मर गई, तो यदि मैं सबका सब यह शाक भूमि
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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