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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/१२/१४४ १६७ से इस प्रकार कहने लगा-'अहो देवानुप्रियो ! यह खाई का पानी वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से अमनोज्ञ-अत्यन्त अशुभ है । जैसे किस सर्प का मृत कलेवर हो, यावत् उससे भी अधिक अमनोज्ञ हैं, अमनोज्ञ गन्ध वाला है । तत्पश्चात् वे राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि उस प्रकार बोले-स्वामिन् ! आप जो ऐसा कहते हैं सो सत्य ही है कि-अहो ! यह खाई का पानी वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से अमनोज्ञ है । यह ऐसा अमनोज्ञ है, जैसे साँप आदि का मृतक कलेवर हो, यावत् उससे भी अधिक अतीव अमनोज्ञ गन्ध वाला हैं । तब राजा जितशत्रु ने सुबुद्धि अमात्य से कहा-'अहो सुबुद्धि ! यह खाई का पानी वर्ण आदि से अमनोज्ञ है, जैसे किसी सर्प आदि का मृत कलेवर हो, यावत् उससे भी अधिक अत्यन्त अमनोज्ञ गंधवाला है । तब सुबुद्धि अमात्य इस कथन का समर्थन न करता हुआ मौन रहा । तब जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से दूसरी बार और तीसरा बार इसी प्रकार कहा'अहो सुबुद्धि ! यह खाई का पानी अमनोज्ञ है इत्यादि पूर्ववत् ।' तब सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु के दूसरी बार और तीसरी बार ऐसा कहने पर इस प्रकार कहा-'स्वामिन ! मुझे इस खाई के पानी के विषय में कोई विस्मय नहीं है । क्योंकि शुभ शब्द के पुद्गल भी अशुभ रूप में परिणत हो जाते हैं, इत्यादि पूर्ववत् यावत् मनुष्य के प्रयत्न से और स्वाभाविक रूप से भी पुद्गलों में परिणमन होता रहता हैं; ऐसा कहा है । तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय ! तुम अपने आपको, दूसरे को और स्व-पर दोनों को असत् वस्तु या वस्तुधर्म की उद्भावना करके और मिथ्या अभिनिवेश करके भ्रम में मत डालो, अज्ञानियों को ऐसी सीख न दो । जितशत्रु की बात सुनने के पश्चात् सुबुद्धि को इस प्रकार का अध्यवसाय-विचार उत्पन्न हुआ-अहो ! जितशत्रु राजा सत्, तत्त्वरूप, तथ्य, अवितथ और सद्भूत जिन भगवान् द्वारा प्ररूपित भावों को नहीं जानता-नहीं अंगीकार करता । अतएव मेरे लिए यह श्रेयस्कर होगा कि मैं जितशत्रु राजा को सत् तत्त्वरूप, तथ्य, अवितथ और सद्भूत जिनेन्द्रप्ररूपित भावों को समझाऊँ और इस बात को अंगीकार कराऊँ । सुबुद्धि अमात्य ने इस प्रकार विचार किया | विचार करके विश्वासपात्र पुरुषों से खाई के मार्ग के बीच की कुंभार की दुकान से नये घड़े और वस्त्र लिए । घड़े लेकर जब कोई विरले मनुष्य चल रहे थे और जब लोग अपने-अपने घरों में विश्राम लेने लगे थे, ऐसे संध्याकाल के अवसर पर जहाँ खाई का पानी था, वहाँ आकर पानी ग्रहण करवाया । उसे नये घड़ों में गलवाया नये घड़ों में डलवाकर उन घड़ों को लांछित-मुद्रित करवाया । फिर सात रात्रि-दिन उन्हें रहने दिया । सात रात्रि-दिन के बाद उस पानी को दूसरी बार कोरे घड़े में छनवाया और नये घड़ों में डलवाया । उनमें ताजा राख डलवाई और फिर उन्हें लांछित-मुद्रित करवा दिया। सात रात-दिन रखने के बाद तीसरी बार नवीन घड़ों में वह पानी डलवाया, यावत् सात रातदिन उसे रहने दिया । इस तरह से, इस उपाय से, बीच-बीच में गलवाया, बीच-बीच में कोरे घड़ों में डलवाया और बीच-बीच में रखवाया जाता हुआ वह पानी सात-सात रात्रि-दिक तक रख छोड़ा जाता था । तत्पश्चात् वह खाई का पानी सात सप्ताह में परिणत होता हुआ उदकरत्न बन गया। वह स्वच्छ, पथ्य-आरोग्यकारी, जात्य, हल्का हो गया; स्फटिक मणि के सदृश मनो वर्ण से
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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