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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/९/१२५ १६१ उसकी परवाह नहीं की। वे आदर न करते हुए शैलक यक्ष के साथ लवमसमुद्र के मध्य में होकर चले जाने लगे । तत्पश्चात् वह रत्नद्वीप की देवी जब उन माकंदीपुत्रों को बहुत-से प्रतिकूल उपसर्गों द्वारा चलित करने, क्षुब्ध करने, पलटने और लुभाने में समर्थ न हुई, तब अपने मधुर श्रृंगारमय और अनुराग-जनक अनुकूल उपसर्गों से उन पर उपसर्ग करने में प्रवृत्त हुई । 'हे माकंदीपुत्रों ! हे देवानुप्रियों ! तुमने मेरे साथ हास्य किया, चौपड़ आदि खेल खेले, मनोवांछित क्रीडा की,झूला आदि झूले है, भ्रमण और रतिक्रीड़ा की है। इन सबको कुछ भी न गिनते हुए, मुझे छोड़कर तुम शैलक यक्ष के साथ लवणसमुद्र के मध्य में होकर जा रहे हो ?' तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने जिनरक्षित का मन अवधिज्ञान से देखा । फिर इस प्रकार कहने लगी-मैं सदैव जिनपालित के लिए अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम थी और जिनपालित मेरे लिए, परन्तु जिनरक्षित को तो मैं सदैव इष्ट, कान्त, प्रिय आदि थी और जिनरक्षित मुझे भी, अतएव जिनपालित यदि रोती, आक्रन्दन करती, शोक करती, अनुताप करती और विलाप करती हुई मेरी परवाह नहीं करता, तो हे जिनरक्षित ! तुम भी मुझ रोती हुई की यावत् परवाह नहीं करते ?' [१२६] तत्पश्चात्-उत्तम रत्नद्वीप की वह देवी अवधिज्ञान द्वारा जिनरक्षित का मन जानकर दोनों माकंदीपुत्रों के प्रति, उनका वध करने के निमित्त बोली । [१२७] द्वेष से युक्त वह देवी लीला सहित, विविध प्रकार के चूर्णवास से मिश्रित, दिव्य, नासिका और मन को तृप्ति देनेवाले और सर्व ऋतुओं सम्बन्धी सुगंधित फूलों की वृष्टि करती हुई । [१२८] नाना प्रकार के मणि, सुवर्ण और रत्नों की घंटियों, धुंघरुओं, नूपुरों और मेखला-इन सब आभूषणों के शब्दों से समस्त दिशाओं और विदिशाओं को व्याप्त करती हुई, वह पापिन देवी इस प्रकार कहने लगी । [१२९] 'हे होल! वसुल, गोल हे नाथ ! हे दयित हे प्रिय ! हे रमण ! हे कान्त! हे स्वामिन् ! हे निपुण ! हे नित्थक्क ! हे कठोर हृदय ! हे दयाहीन ! हे अकृतज्ञ ! शिथिल भाव । हे निर्लज्ज ! हे रूक्ष ! हे अकरूण ! जिनरक्षित ! हे मेरे हृदय के रक्षक । _ [१३०] 'मुझ अकेली, अनाथ, बान्धवहीन, तुम्हारे चरणों की सेवा करने वाली और अधन्या का त्याग देना तुम्हारे लिए योग्य नहीं है । हे गुणों के समूह ! तुम्हारे बिना मैं क्षण भर भी जीवित रहने में समर्थ नहीं हूँ' ।। [१३१] ‘अनेक सैकड़ों मत्स्य, मगर और विविध क्षुद्र जलचर प्राणियों से व्याप्त गृहरूप या मत्स्य आदिके घर-स्वरूप इस रत्नाकर के मध्य में तुम्हारे सामने मैं अपना वध करती हूँ । आओ, वापिस लौट चलो । अगर तुम कुपित हो तो मेरा एक अपराध क्षमा करो' । [१३२] 'तुम्हारा मुख मेघ-विहीन विमल चन्द्रमा के समान है । तुम्हारे नेत्र शरद्क्रतु के सद्यः विकसित कमल, कुमुद और कुवलय के पत्तों के समान हैं । ऐसे नेत्रवाले तुम्हारे मुख के दर्शन की प्यास से मैं यहाँ आई हूँ। तुम्हारे मुख को देखने की मेरी अभिलाषा है । हे नाथ ! तुम इस ओर मुझे देखों, जिससे मैं तुम्हारा मुख-कमल देख लूँ ।' [१३३] इस प्रकार प्रेमपूर्ण, सरल और मधुर वचन बार-बार बोलती हुई वह पापिनी और पापपूर्ण हृदयवाली देवी मार्ग में पीछे-पीछे चलने लगी । 51]
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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