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________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/८/९३ १४७ दिशाओं में भाग निकली । तब वह कुम्भ राजा जितशत्रु आदि छह राजाओं के द्वारा हत, मानमर्दित यावत् जिसकी सेना चारों ओर भाग खड़ी हुई है ऐसा होकर, सामर्थ्यहीन, बलहीन, पुरुषार्थ-पराक्रमहीन, त्वरा के साथ, यावत् वेग के साथ जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ आया। मिथिला नगरी में प्रविष्ट होकर उसने मिथिला के द्वार बन्द कर लिये । किले का रोध करने में सज्ज होकर ठहरा । जितशत्रु प्रभृति छहों नरेश जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ आये । मिथिला राजधानी को मनुष्यों के गमनागमन से रहित कर दिया, यहाँ तक कि कोट के ऊपर से भी आवागमन रोक दिया अथवा मल त्यागने के लिए भी आना-जाना रोक दिया । उन्होंने नगरी को चारों और से घेर लिया । कुम्भ राजा मिथिला राजधानी को धिरी जानकिर आभ्यन्तर उपस्थानशाला में श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठा । वह जितशत्रु आदि छहों राजाओं के छिद्रों को, विवरों को और मर्म को पा नहीं सका । अतएव बहुत से आयों से, उपायों से तथा औत्पत्तिकी आदि चारों प्रकार की बुद्धि से विचार करते-करते कोई भी आय या उपाय न पा सका । तब उसके मन का संकल्प क्षीण हो गया, यावत् वह हथेली पर मुख रखकर आर्तध्यान करने लगा-चिन्ता में डूब गया । इधर विदेहराजवरकन्या मल्ली ने स्नान किया, यावत् बहुत-सी कुब्जा आदि दासियों से परिवृत होकर जहाँ कुंभ राजा था, वहाँ आई । आकर उसने कुंभ राजा के चरण ग्रहण कियापैर छुए । तब कुंभराजा ने विदेहराजवरकन्या मल्ली का आदर नहीं किया, अत्यन्त गहरी चिन्ता में व्यग्र होने के कारण उसे उसका आना भी मालूम नहीं हुआ, अतएव वह मौन ही रहा । तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने राजा कुंभ से इस प्रकार कहा-'हे तात ! दूसरे समय मुझे आती देखकर आप यावत् मेरा आदर करते थे, प्रसन्न होते थे, गोद में बिठाने थे, परन्तु क्या कारण है कि आज आप अवहत मानसिक संकल्प वाले होरक चिन्ता कर रहे हैं ?' तब राजा कुंभ ने विदेहराजवरकन्या मल्ली से इस प्रकार कहा-'हे पुत्री ! इस प्रकार तुम्हारे रिए जितशत्रु प्रभृति छह राजाओं ने दूत भेजे थे । मैंने उन दूतों को अपमानित करके यावत् निकलवा दिया। तब वे कुपित हो गये । उन्होंने मिथिला राजधानी को गमनागमनहीन बना दिया है, यावत् चारों ओर घेरा डालकर बैठे हैं । अतएव हे पुत्री ! मैं उन जितशत्रु प्रभृति नरेशों के अन्तर-छिद्र आदि न पाता हआ यावत चिन्ता में डूबा हँ ।' तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने राजा कुम्भ से इस प्रकार कहा-तात ! आप अवहत मानसिक संकल्प वाले होकर चिन्ता न कीजिए । हे तात ! आप उन जितशत्रु आदि छहों राजाओं में से प्रत्येक के पास गुप्त रूप से दूत भेज दीजिए और प्रत्येक को यह कहला दीजिए कि 'मैं विदेहराज-वरकन्या तुम्हें देता हूँ।' ऐसा कहकर सन्ध्याकाल के अवसर पर जब बिरले मनुष्य गमनागमन करते हों और विश्राम के लिए अपने-अपने घरों में मनुष्य बैठे हो; उससमय अलग-अलग राजा का मिथिला राजधानी के भीतर प्रवेश कराइए । उन्हें गर्भगृह के अन्दर ले जाइए । फिर मिथिला राजधानी के द्वार बन्द करा दीजिए और नगरों के रोध में सज्ज होकर ठहरिए । तत्पश्चात् राजा कुम्भ ने इसी प्रकार किया । यावत् छहों राजाओं को प्रवेश कराया । वह नगरी के रोध में सज्ज होकर ठहरा । तत्पश्चात् जितशत्रु आदि छहों राजा दूसरे दिन प्रातःकाल जालियों में से स्वर्णमयी, मस्तक पर छिद्रवाली और कमल के ढक्कन वाली मल्ली की प्रतिमा को देखने लगे । 'यही विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्ली है' ऐसा जानकर
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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