SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/७/७५ १२७ ज्ञातिजनों आदि तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के समक्ष जेठी पुत्रवधू उज्झिका को बुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा-'हे पुत्री ! अतीत-विगत पांचवें संवत्सर में अर्थात् अब से पांच वर्ष पहले इन्हीं मित्रों ज्ञातिजनों आदितथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के समक्ष मैंने तुम्हारे हाथ में पांच शालि-अक्षत दिये थे और यह कहा था कि- 'हे पुत्री ! जब मैं ये पांच शालिअक्षत मांगू, तब तुम मेरे ये पांच शालिअक्षत मुझे वापिस सौंपना । तो यह अर्थ समर्थ है ? उज्झिका ने कहा-'हां, सत्य है ।' धन्य सार्थवाह बोले-'तो हे पुत्री ! मेरे वह शालि अक्षत वापिस दो ।' . तत्पश्चात् उज्झिका ने धन्य सार्थवाह की यह बात स्वीकार की । पल्य में से पांच शालिअक्षत ग्रहण करके धन्य सार्थवाह के समीप आकर बोली- ये हैं वे शालिअक्षत ।' यों कहकर धन्य सार्थवाह के हाथ में पांच शालि के दाने दे दिये । तब धन्य सार्थवाह ने उज्झिका की सौगन्ध दिलाई और कहा-'पुत्री ! क्या वही ये शालि के दाने हैं अथवा ये दूसरे हैं ?' तब उज्झिका ने धन्य सार्थवाह से इस प्रकार कहा-हे तात ! इससे पहले के पांचवें वर्ष में इन मित्रों एवं ज्ञातजनों के तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के सामने पांच दाने देकर 'इनका संरक्षण, संगोपन और संवर्धन करती हुई विचरता' ऐसा आपने कहा था । उस समय मैंने आपकी बात स्वीकार की थी । वे पाँच शालि के दाने ग्रहण किये और एकान्त में चली गई । तब मुझे इस तरह का विचार उत्पन्न हुआ कि पिताजी के कोठार में बहुत से शालि भरे हैं, जब मांगेंगे तो दे दूंगी । ऐसा विचार करके मैंने वह दाने फेंक दिये और अपने काम में लग गई । अतएव हे तात ! ये वही शालि के दाने नहीं हैं । ये दूसरे हैं ।' धन्य सार्थवाह उज्झिका से यह अर्थ सुनकर और हृदय में धारण करके क्रुद्ध हुए, कुपित हुए, उग्र हुए और क्रोध में आकर मिसमिसाने लगे । उज्झिका को उन मित्रों ज्ञातिजनों आदि के तथा चारों पुत्रवधुओं के कुलगृहवर्ग के सामने कुलगृह की राख फेंकने वाली, छाणे डालने या थापनेवाली, कचरा झाड़ने वाली, पैर धोने का पानी देनेवाली, स्नान के लिए पानी देनेवाली और बाहर के दासी के कार्य करनेवाली के रूप में नियुक्त किया । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो साधु अथवा साध्वी यावत् आचार्य अथवा उपाध्याय के निकट गृहत्याग करके और प्रव्रज्या लेकर पांच महाव्रतों का परित्याग कर देता हैं, वह उज्झिका की तरह इसी भव में बहुत-से श्रमणों, बहुत-सी श्रमणियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र बनता हैं, यावत् अनन्त संसार में पर्यटन करेगा । . इसी प्रकार भोगवती के विषय में जानना चाहिए । विशेषता यह कि खांड़ने वाली, कूटने वाली, पीसनेवाली, जांते में दल कर धान्य के छिलके उतारने वाली, रांधनेवाली, परोसने वाली, त्यौहारों के प्रसंग पर स्वजनों के घर जाकर ल्हावणी बांटनेवाली, घर में भीतर की दासी का काम करनेवाली एवं रसोईदारिन का कार्य करनेवाली के रूप में नियुक्त किया । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो साधु अथवा साध्वी पांच महाव्रतों को फोड़ने वाला वह इसी भव में बहुत-से साधुओं, बहुत-सी साध्वियों, बहुत-सी श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं की अवहेलता का पात्र बन्ता हैं, जैसे वह भोगवती । इसी प्रकार रक्षिका के विषय में जानना चाहिए । विशेष यह है कि वह जहाँ उसका निवासगृह था, वहाँ गई । वहाँ जाकर उसने मंजूषा खोली । खोलकर रत्न की डिबिया में से
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy