SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञाताधर्मकथा-१/-/४/६२ १०९ ( अध्ययन-४- कूर्म, [६२] 'भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने ज्ञात अंग के चौथे ज्ञात-अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है ?' हे जम्बू ! उस काल और उस समय में वाणारसी नामक नगरी थी। उस वाणारसी नगरी के बाहर गंगा नामक महानदी के ईशान कोण में मृतगंगातीरद्रह नामक एक द्रह था । उसके अनुक्रम से सुन्दर सुशोभित तट थे । जल गहरा और शीतल था । स्वच्छ एवं निर्मल जल से परिपूर्ण था । कमलिनियों के पत्तों और फूलों की पांखुड़ियों से आच्छादित था । बहुत से उत्पलों, पद्मों, कुमुदों, नलिनों तथा सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि कमलों से तथा केसरप्रधान अन्य पुष्पों से समुद्ध था । इस कारण वह आनन्दजनक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था । उस द्रह में सैकड़ों, सहस्त्रों और लाखों मत्स्सों कच्छों,ग्राहों, और सुंसुमार जाति के जलचर जीवों के समूह भय से रहित, उद्वेग से रहित, सुखपूर्वक रमते-रमते विचरण करते थे। उस मृतगंगातीर द्रह के समीप एक बड़ा मालुकाकच्छ था । (वर्णन) उस मालुकाकच्छ में दो पापी श्रृंगाल निवास करते थे । वे पाप का आचरण करनेवाले, चंड रौद्र इष्ट वस्तु को प्राप्त करने में दत्तचित्त और साहसी थे । उनके हाथ पैर रक्तरंजित रहते थे । वे मांस के अर्थी, मांसाहारी, मांसप्रिय एवं मांसलोलुप थे । मांस की गवेषणा करते हुए रात्रि और सन्ध्या के समय घूमते थो और दिन में छिपे रहते थे । तत्पश्चात् किसी समय, सूर्य के बहुत समय पहले अस्त हो जाने पर, सन्ध्याकाल व्यतीत हो जाने पर, जब कोई विरले मनुष्य ही चलते-फिरते थे और सब मनुष्य अपने-अपने घरों में विश्राम कर रहे थे , तब मृतगंगातीर ह्रद में से आहार के अभिलाषी दो कछुए बाहर निकले । वे आसपास चारों ओर फिरते हुए अपनी आजीविका करते हुए विचरण करने लगे । - आहार के अर्थी यावत् आहार की गवेषणा करते हुए वे दोनों पापी श्रृंगाल मालुकाकच्छ से बाहर निकले । जहाँ मृतगंगातीर नामक ह्रद था, वहाँ आए । उसी मृतगंगातीर ह्रद के पास इधर-उधर चारों ओर फिरने लगे और आहार की खोज करते हुए विचरण करने लगे उन पापी सियारों ने उन दो कछुओं को देखा । दोनों कछुए के पास आने के लिए प्रवृत्त हुए । उन कछुओं ने उन पापी सियारों को आता देखा । वे डरे, त्रास को प्राप्त हुए, भागने लगे, उद्धेग को प्राप्त हुए और बहुत भयभीत हुए । उन्होंने अपने हाथ पैर और ग्रीवा को अपने शरीर में गोपित कर लिया-छिपा लिया, निश्चल, निस्पंद और मौन रह गए । वे पापी सियार, वहाँ आए। उन कछुओं को सब तरफ से फिराने-घुमाने लगे, स्थानान्तरित करने लगे, सरकाने हटाने लगे, चलाने लगे, स्पर्श करने लगे, हिलाने लगे, क्षुब्ध करने लगे, नाखूनों से फाड़ने लगे और दाँतों से चीथने लगे, किन्तु उन कछुओं के शरीर को थोड़ी बाधा, अधिक बाधा या विशेष बाधा उत्पन्न करने में अथवा उनकी चमड़ी छेदने में समर्थ न हो सके । उन पापी सियारों ने इस कछुओं को दूसरी बार और तीसरी बार सब ओर से घुमाया-फिराया, किन्तु यावत् वे उनकी चमड़ी छेदने समर्थ न हुए । तब वे श्रान्त हो गये-तान्त हो गए और शरीर तथा मन दोनों से थक गए तथा खेद को प्राप्त हुए । धीमे-धीमे पीछे लौट गये, एकान्त में चले गये और निश्चल, निस्पंद तथा मूक होकर ठहर गये ।
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy