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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद १०४ सारभूत रत्नो में लुब्ध होता हैं, उसकी दशा भी चोर जेसी होती है । [ ५३ ] उस काल और उस समय में धर्मघोष नामक स्थविर भगवन्त जाति से उत्पन्न, कुल से सम्पन्न, यावत् अनुक्रम से चलते हुए, जहाँ राजगृह नगर था और जहाँ गुणशील चैत्या था, यथायोग्य उपाश्रय की याचना करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे रहे । उनका आगमन जानकर परिषद् निकली । धर्मघोष स्थविर ने धर्मदेशना । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को बहुत लोगों से यह अर्थ सुनकर और समझकर ऐसा अध्यवसाय, अभिलाष, चिन्तन एवं मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ - 'उत्तम जाति से सम्पन्न स्थविर भगवान् यहाँ आये हैं, यहाँ प्राप्त हुए हैं- आ पहुँचे हैं । तो मैं जाऊँ, स्थविर भगवान् को वन्दन करूँ, नमस्कार करूँ । इस प्रकार विचार करके धन्य ने स्नान किया, याव्त शुद्धसाफ तथा सभा में प्रवेश करने योग्य उत्तम मांगलिक वस्त्र धारण किये । फिर पैदल चल कर जहाँ गुणशील चैत्य था और जहाँ स्थविर भगवान् थे, वहाँ पहुँचा । वन्दना की, नमस्कार किया । स्थविर भगवान् ने धन्य सार्थवाह को विचित्र धर्म का उपदेश दिया, अर्थात् ऐसे धर्म का उपदेश दिया जो जिनशासन के सिवाय अन्यत्र सुलभ नहीं है । तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने धर्मोपदेश सुनकर इस प्रकार कहा- 'हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ । यावत् वह प्रव्रजित हो गया । यावत् बहुत वर्षो तक श्रामण्यपर्याय पाल कर, आहार का प्रत्याख्यात करके एक मास की संलेखना करके, अनशन से साठ भक्तों को त्याग कर, कालमास में काल करके सौधर्म देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न हुआ । सौधर्म देवलोक में किन्हीं - किन्हीं देवों की चार पल्योपम की स्थिति कही है । धन्य नामक देव की भी चार पल्योपम की स्थिति कही है । वह धन्य नामक देव आयु के दलिकों का क्षय करके, आयुकर्म की स्थिति का क्षय करके तथा भव का क्षय करके, देह का त्याग करके अनन्तर ही महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि प्राप्त करेगा यावत् सर्व दुखों का अन्त करेगा । [ ५४ ] जम्बू ! जैसे धन्य सार्थवाह ने 'धर्म है' ऐसा समझ कर या तप, प्रत्युपकार, मित्र आदि मान कर विजय चोर को उस विपुल अशन, पान, खादिन और स्वादिम में से संविभाग नहीं किया था, सिवाय शरीर की रक्षा करने के । इसी प्रकार हे जम्बू ! हमारा जो साधु या साध्वी यावत् प्रव्रजित होकर स्नान, उपामर्दन, पुष्प, गंध, माला, अलंकार आदि श्रृंगार को त्याग करके अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार करता है, सो इस औदारिक शरीर के वर्ण के लिए, रूप के लिए या विषय-सुख के लिए नहीं करता । ज्ञान, दर्शन और चारित्र को वहन करने के सिवाय उसका अन्य कोई प्रयोजन नहीं होता । वह साधुओं साध्वियों श्रावको और श्राविकाओं द्वारा इस लोक में अर्चनीय वह सर्व प्रकार से उपासनीय होता है । परलोक में भी वह हस्तछेदन, कर्णछेदन और नासिकाछेदन को तथा इसी प्रकार हृदय के उत्पाटन एवं वृषणों के उत्पाटन और उद्बन्धन आदि कष्टों को प्रपात नहीं करेगा । वह अनादि अनन्त दीर्घमार्ग वाले संसार रूप अटवी को पार करेगा, जैसे धन्य सार्थवाह ने किया । हे जम्बू ! भगवान् महावीर ने द्वितीय ज्ञात - अध्ययन का यह अर्थ कहा है । अध्ययन - २ - का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण अध्ययन - ३- 'अंड' [ ५५ ] भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने ज्ञाताधर्मकथा के द्वितीय अध्ययन
SR No.009783
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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