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________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद ज्ञानरूप है और कथञ्चित् अज्ञानरूप है । किन्तु उनका ज्ञान नियमतः आत्मरूप है । इसी प्रकार 'स्तनितकुमार' तक कहना चाहिए । भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की आत्मा क्या अज्ञानरूप है ? क्या पृथ्वीकायिकों का अज्ञान अन्य है ? गौतम ! पृथ्वीकायिकों की आत्मा नियम से अज्ञान रूप है, परन्तु उनका अज्ञान अवश्य ही आत्मरूप है । इसीप्रकार वनस्पतिकायिक जीवों तक कहना । द्वीन्द्रिय आदि से यावत् वैमानिक जीवों का कथन नैरयिकों के समान जानना । भगवन् ! आत्मा दर्शनरूप है, या दर्शन उससे भिन्न है ? गौतम ! आत्मा अवश्य दर्शनरूप है और दर्शन भी नियमतः आत्मरूप है । भगवन् ! नैरयिकों की आत्मा दर्शनरूप है, अथवा नैरयिक जीवों का दर्शन उनसे भिन्न है ? गौतम ! नैरयिक जीवों की आत्मा नियमतः दर्शनरूप है, उनका दर्शन भी नियमतः आत्मरूप है । इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक चौवीस ही दण्डकों के विषय में (कहना चाहिए ।) ७० [५६२ ] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी आत्मरूप है या वह अन्यरूप है ? गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी कथंचित् आत्मरूप है और कथञ्चित् नोआत्मरूप है तथा कथञ्चित् अवक्तव्य है । भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं ? गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी अपने स्वरूप से व्यपदिष्ट होने पर आत्मरूप है, पररूप से आदिष्ट होने पर नो आत्मरूप है और उभयरूप की विवक्षा से कथन करने पर सद्असद्रूप होने से अवक्तव्य है । इसी कारण से हे गौतम! यावत् उसे अवक्तव्य कहा गया है । भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी आत्म रूप है ? इत्यादि प्रश्न । रत्नप्रभापृथ्वी के समान ही शर्कराप्रभा के विषय में भी कहना । इसी प्रकार यावत् अधः सप्तमपृथ्वी तक कहना । भगवन् ! सौधर्मकल्प आत्मरूप है ? इत्यादि प्रश्न है । गौतम ! सौधर्मकल्प कथंचित् आत्मरूप है, कथञ्चित् नो आत्मरूप है तथा कथञ्चित् आत्मरूप -नो- आत्मरूप होने से अवक्तव्य है । भगवन् ! इस कथन का क्या कारण है ? गौतम ! स्व-स्वरूप की दृष्टि से कथन किये जाने पर आत्मरूप है, पर-रूप की दृष्टि से कहे जाने पर नो आत्मरूप है और उभयरूप की अपेक्षा से अवक्तव्य है । इसी कारण उपर्युक्त रूप से कहा गया है । इसी प्रकार अच्युतकल्प तक जानना चाहिए । भगवन् ! ग्रैवेयकविमान आत्म रूप है ? अथवा वह उससे भिन्न (नो - आत्मरूप ) है ? गौतम ! इसका कथन रत्नप्रभापृथ्वी के समान करना चाहिए । इसी प्रकार अनुत्तरविमान तक कहना चाहिए । इसी प्रकार ईषत्प्राम्भारा पृथ्वी तक कहना चाहिए । भगवन् ! परमाणु- पुद्गल आत्मरूप अथवा वह अन्य है ? (गौतम !) सौधर्मकल्प के अनुसार परमाणु- पुद्गल के विषय में कहना चाहिए । भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कन्ध आत्मरूप है, (अथवा ) वह अन्य है ? गौतम ! द्विप्रदेशी स्कन्ध कथंचित् सद्रूप है, कथंचित् असद्रूप है, और सद्-असद्रूप होने से कथंचित् अवक्तव्य है । कथंचित् सद्रूप है और कथंचित् असद्रूप है, कथंचित् स्वरूप है और सद्-असद् उभयरूप होने से अवक्तव्य है और कथंचित् असद्रूप है और सद्-असद् उभयरूप होने से अवक्तव्य है । भगवन् ! किस कारण से यावत् कथंचित् असद्रूप है और सद्-असद् उभयरूप होने से अवक्तव्य है ? गौतम ! (द्विप्रदेशी स्कन्ध) अपने स्वरूप की अपेक्षा से कथन किये जाने पर सद्रूप है, पररूप की अपेक्षा से कहे जाने पर असद्रूप है और उभयरूप की अपेक्षा से अवक्तव्य है तथा सद्भावपर्याय वाले अपने एक देश की अपेक्षा से व्यपदिष्ट होने पर सद्रूप है तथा असद्भाव
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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