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________________ २६ - हिन्दी अनुवाद आगमसूत्र - 1 1 तब हस्तिनापुर नगर में श्रृंगाटक यावत् मार्गों पर बहुत से लोग परस्पर इस प्रकार कहने यावत् बतलाने लगे-हे देवानुप्रियो ! शिवराजर्षि जो यह कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं जानता देखता हूँ कि इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र ही हैं, इसके आगे द्वीप- समुद्र बिलकुल नहीं है; उनका यह कथन मिथ्या है । श्रमण भगवान् महावीर इस प्रकार कहते, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि निरन्तर बेले - बेले का तप करते हुए शिवराजर्षि को विभंगज्ञान उत्पन्न हुआ है । विभंगज्ञान उत्पन्न होने पर वे अपनी कुटी में आए यावत् वहां से तापस आश्रम में आकर अपने तापसोचित उपकरण रक्खे और हस्तिनापुर के श्रृंगाटक यावत् राजमार्गो पर स्वयं को अतिशय ज्ञान होने का दावा करने लगे । लोग ऐसी बात सुन परस्पर तर्कवितर्क करते हैं "क्या शिवराजर्षि का यह कथन सत्य है ? परन्तु मैं कहता हूँ कि उनका यह कथन मिथ्या है ।" श्रमण भगवान् महावीर इस प्रकार कहते हैं कि वास्तव में जम्बूद्वीप आदि तथा लवणसमुद्र आदि गोल होने से एक प्रकार के लगते हैं, किन्तु वे उत्तरोत्तर द्विगुणद्विगुण होने से अनेक प्रकार के हैं । इसलिए हे आयुष्मन् श्रमणो ! द्वीप और समुद्र असंख्यात है । तब शिवराजर्षि बहुत-से लोगों से यह बात सुनकर तथा हृदयंगम करके शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेद को प्राप्त, अनिश्चित एवं कलुषित भाव को प्राप्त हुए । तब शंकित, कांक्षित यावत् कालुष्ययुक्त बने हुए शिवराजर्षि का वह विभंग अज्ञान भी शीघ्र ही पतित हो गया । तत्पश्चात् शिवराजर्षि को इस प्रकार का विचार यावत् उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान् महावीरस्वामी, धर्म की आदि करने वाले, तीर्थंकर यावत् सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हैं, जिनके आगे आकाश में धर्मचक्र चलता है, यावत् वे यहाँ सहस्त्राम्रवन उद्यान में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके यावत् विचर रहे हैं। तथारूप अरहन्त भगवन्तों का नाम - गोत्र श्रवण करना भी महाफलदायक है, तो फिर उनके सम्मुख जाना, वन्दना करना, इत्यादि का तो कहना ही क्या ? यावत् एक भी आर्य धार्मिक सुवचन का सुनना भी महाफलदायक है, तो फिर विपुल अर्थ के ग्रहण करने का तो कहना ही क्या ! अतः श्रमण भगवान् महावीरस्वामी के पास जाऊँ, वन्दन - नमस्कार करूँ, यावत् पर्युपासना करूँ । यह मेरे लिए इस भव में और परभव में, यावत् श्रेयस्कर होगा ।" इस प्रकार का विचार करके वे जहाँ तापसों का मठ था वहाँ आए और उसमें प्रवेश किया । फिर वहाँ से बहुत-से लोढी, लोह - कड़ाह यावत् छबड़ी सहित कावड़ आदि उपकरण लिए और उस तापसमठ से निकले । वहाँ से वे शिवराजर्षि हस्तिनापुर नगर के मध्य में से होते हुए, जहाँ सहस्त्राम्रवन उद्यान था और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ आए । तीन वार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, उन्हें वन्दना - नमस्कार किया और न अतिदूर, न अतिनिकट, यावत् भगवान् की उपासना करने लगे । तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने शिवराजर्षि को और उस महती परिषद् को धर्मोपदेश दिया कि यावत् -" इस प्रकार पालन करने से जीव आज्ञा के आराधक होते हैं ।" तदनन्तर वे शिवराजर्षि श्रमण भगवान् महावीरस्वामी से धर्मोपदेश सुनकर और अवधारण कर; स्कन्दक की तरह, यावत् ईशानकोण में गए और लोढ़ी, लोह - कड़ाह यावत् छबड़ी सहित कावड़ आदि तापसोचित उपकरणों को एकान्त स्थान में डाल दिया । फिर स्वयमेव पंचमुष्टि लोच किया और श्रमण भगवान् महावीर के पास ऋषभदत्त की तरह प्रव्रज्या अंगीकार की; तथैव ग्यारह अंगशास्त्रों का अध्ययन किया यावत् समस्त दुःखों से मुक्त हुए । [५०९] श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार करके भगवान् गौतम ने इस प्रकार
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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