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________________ १९० आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद 1 और कापोतलेश्या । इस प्रकार समग्र वर्णन, उन्नीसवें शतक में अग्रिकायिक जीवों के समान उद्वर्तित होते हैं, तक कहना । विशेष यह है कि ये द्वीन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं, पर सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते हैं । उनके नियमतः दो ज्ञान या दो अज्ञान होते हैं । वे मनोयोगी नहीं होते, वे वचनयोगी भी होते हैं और काययोगी भी होते हैं । वे नियमतः छह दिशा का आहार लेते हैं । क्या उन जीवों को- 'हम इष्ट और अनिष्ट रस तथा इष्ट-अनिष्ट स्पर्श का प्रतिसंवेदन करते हैं, ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन होता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । वे रसादि का संवेदन करते हैं । उनकी स्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त की और उत्कृष्ट बारह वर्ष की होती है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीवों में भी समझना । किन्तु इनकी इन्द्रियों में और स्थिति में अन्तर है । स्थिति प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार जानना । 1 भगवन् ! क्या कदाचित् दो, तीन, चार या पांच आदि पंचेन्द्रिय मिल कर एक साधारण शरीर बांधते हैं ? गौतम ! पूर्ववत् द्वीन्द्रियजीवों के समान है । विशेष यह कि इनके छहों लेश्याएँ और तीनों दृष्टियाँ होती हैं । इनमें चार ज्ञान अथवा तीन अज्ञान भजना से होते हैं। तीनों योग होते हैं । भगवन् ! क्या उन (पंचेन्द्रिय) जीवों को ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन होता है कि 'हम आहार ग्रहण करते हैं ?' गौतम ! कितने ही (संज्ञी) जीवों को ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन होता है और कई (असंज्ञी) जीवों को ऐसी संज्ञा यावत् वचन नहीं होता कि 'हम आहार ग्रहण करते हैं', परन्तु वे आहार तो करते ही हैं । भगवन् ! क्या उन (पंचेन्द्रिय) जीवों को ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन होता है कि हम इष्ट या अनिष्ट शब्द, रूप, गन्ध, रस अथवा स्पर्श का अनुभव करते हैं ? गौतम ! कतिपय (संज्ञी) जीवों को ऐसी संज्ञा, यावत् वचन होता और किसी- (असंज्ञी) को ऐसी संज्ञा यावत् वचन नहीं होता है । परन्तु वे संवेदन तो करते ही हैं । भगवन् ! क्या ऐसा कहा जाता है कि वे (पंचेन्द्रिय) जीव प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में रहे हुए हैं ? गौतम ! उनमें से कई (पंचेन्द्रिय) जीव प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य में रहे हुए हैं, ऐसा कहा जाता है और कई जीव नहीं रहे हुए हैं, ऐसा कहा जाता है । जिन जीवों के प्रति वे प्राणातिपात आदि करते हैं, उन जीवों में से कई जीवों को- 'हम मारे जाते हैं, और ये हमें मारने वाले हैं' इस प्रकार का विज्ञान होता है और कई जीवों को इस प्रकार का ज्ञान नहीं होता । उन जीवों का उत्पाद सर्व जीवों से यावत् सर्वार्थसिद्ध से भी होता है । उनकी स्थिि जघन्य अन्तमुहूर्त की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की होती है । उनमें केवलीसमुद्घात को छोड़ कर (शेष) छह समुद्धात होते हैं । वे मर कर सर्वत्र सर्वार्थसिद्ध तक जाते हैं । शेष सब बातें न्द्रियजीवों के समान है । 1 भगवन् ! इन द्वीन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय जीवों में कौन किससे यावत् विशेषाधिक है ? सबसे अल्प पंचेन्द्रिय जीव हैं। उनसे चतुरिन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । शतक - २० उद्देशक - २ [ ७८१] भगवन् ! आकाश कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! दो प्रकार कालोकाकाश और अलोकाकाश । भगवन् ! क्या लोकाकाश जीवरूप है, अथवा जीवदेश-रूप है ? गौतम ! द्वितीय शतक के अस्ति- उद्देशक अनुसार कहना चाहिए । विशेष में धर्मास्तिकाय
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
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