SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती - १९/-/-/७५८ भवन, निर्वृत्ति, करण और वनचर-सुर । १८१ शतक- १९ उद्देशक - १ [७५९] राजगृह नगर में यावत् पूछा- भगवन् ! लेश्याएँ कितनी हैं ? गौतम ! छह, प्रज्ञापनासूत्र का लेश्योद्देशक सम्पूर्ण कहना, भगवन् ! यह इसी प्रकार है । शतक- १९ उद्देशक - २ [७६०] भगवन् ! लेश्याएँ कितनी कही गई हैं ? प्रज्ञापनासूत्र के सत्तरहवें पद का छठा समग्र गर्भोद्देशक कहना चाहिए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । शतक - १९ उद्देशक- ३ [७६१] राजगृह नगर में यावत् पूछा-भगवन् ! क्या कदाचित् दो यावत् चार-पांच पृथ्वीकायिक मिल कर साधारण शरीर बांधते हैं, बांध कर पीछे आहार करते हैं, फिर उस आहार का परिणमन करते हैं और फिर इसके बाद शरीर का बन्ध करते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । क्योंकि पृथ्वीकायिक जीव प्रत्येक - पृथक्-पृथक् आहार करने वाले हैं और उस आहार को पृथक्-पृथक् परिणत करते हैं; इसलिए वे पृथक्-पृथक् शरीर बांधते हैं । इसके पश्चात् वे आहार करते हैं, उसे परिणमाते हैं और फिर शरीर बांधते हैं । भगवन् ! उन (पृथ्वीकायिक) जीवों के कितनी लेश्याएँ हैं ? गौतम ! चार, यथाकृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या और तेजोलेश्या । भगवन् ! वे जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, या सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं ? गौतम ! वे जीव सम्यग्दृष्टि नहीं हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, वे सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी नहीं हैं । भगवन् ! वे जीन ज्ञानी हैं अथवा अज्ञानी हैं ? गौतम ! वे ज्ञानी नहीं हैं, अज्ञानी हैं । उनमें दो अज्ञान निश्चित रूप से पाए जाते हैं-मति - अज्ञान और श्रुत- अज्ञान । भगवन् ! क्या वे जीव मनोयोगी हैं, वचनयोगी हैं, अथवा काययोगी हैं ? गौतम ! वे काययोगी हैं । भगवन् ! वे जीव साकारोपयोगी हैं या अनाकारोपयोगी हैं ? गौतम ! वे साकारोपयोगी भी हैं और अनाकारोपयोगी भी हैं । भगवन् ! वे (पृथ्वीकायिक) जीव क्या आहार करते हैं ? गौतम ! वे द्रव्य से - अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का आहार करते हैं, इत्यादि वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के आहारोद्देशक के अनुसार- सर्व आत्मप्रदेशों से आहार करते हैं, तक (जानना ।) भगवन् ! वे जीव जो आहार करते हैं, क्या उसका चय होता है, और जिसका आहार नहीं करते, उसका चय नहीं होता ? जिस आहार का चय हुआ है, वह आहार बाहर निकलता है ? और (साररूप भाग ) शरीर - इन्द्रियादि रूप में परिणत होता है ? गौतम ! ऐसा ही है । भगवन् ! उन जीवों को- 'हम आहार करते हैं, ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन और वचन होते हैं ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । फिर भी वे आहार तो करते हैं । भगवन् ! क्या उन जीवों को यह संज्ञा यावत् वचन होता है कि हम इष्ट या अनिष्ट स्पर्श का अनुभव करते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, फिर भी वे वेदन तो करते ही हैं । भगवन् ! क्या वे (पृथ्वीकायिक) जीव प्राणातिपात मृषावाद, अदत्तादान, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य में रहे हुए हैं ? हाँ, गौतम ! वे जीव रहे हुए हैं तथा वे जीव, दूसरे जिन पृथ्वीकायिकादि जीवों की हिंसादि करते हैं, उन्हें भी, ये जीव हमारी हिंसादि करने वाले हैं, ऐसा
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy