SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती-१७/-/३/७०३ १५५ एजना तक पूर्ववत् कहना चाहिए । इसी प्रकार काल-एजना, भव-एजना और भाव-एजना के विषय में समझ लेना चाहिए और इसी प्रकार नैरयिककालादि-एजना से लेकर देवभाव-एजना तक जानना चाहिए । [७०४] भगवन् ! चलना कितने प्रकार की है ? गौतम ! चलना तीन प्रकार की है, यथा-शरीरचलना, इन्द्रियचलना और योगचलना । भगवन् ! शरीरचलना कितने प्रकार की है ? गौतम ! पांच प्रकार की यथा-औदारिकशरीरचलना, यावत् कार्मणशरीरचलना । भगवन् ! इन्द्रियचलना कितने प्रकार की कही गई है ? गौतम ! पांच प्रकार की यथा-श्रोत्रेन्द्रियचलना यावत् स्पर्शेन्द्रिय-चलना । भगवन् ! योगचलना कितने प्रकार की कही गई है ? गौतम ! तीन प्रकार की यथा-मनोयोगचलना, वचनयोगचलना और काययोगचलना । . भगवन् ! औदारिकशरीर-चलना को औदारिकशरीर-चलना क्यों कहा जाता है ? गौतम! जीवों ने औदारिकशरीर में वर्तते हए, औदारिकशरीर के योग्य द्रव्यों को, औदारिकशरीर रूप में परिणमाते हुए भूतकाल में औदारिकशरीर की चलना की थी, वर्तमान में चलना करते हैं, और भविष्य में चलना करेंगे, इस कारण से कहा जाता है । भगवन् ! वैक्रियशरीर-चलना को वैक्रियशरीरचलना किस कारण कहा जाता है ? पूर्ववत् समग्र कथन करना चाहिए । विशेष यह है औदारिकशरीर के स्थान पर 'वैक्रियशरीर में वर्तते हुए', कहना चाहिए । इसी प्रकार कार्मणशरीर चलना तक कहना चाहिए। भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय-चलना को श्रोत्रेन्द्रिय-चलना क्यों कहा जाता है ? गौतम ! चूंकि श्रोत्रेन्द्रिय को धारण करते हुए जीवों ने श्रोत्रेन्द्रिय योग्य द्रव्यों को श्रोत्रेन्द्रिय-रूप में परिणमाते हुए. श्रोत्रेन्द्रियचलना की थी, करते हैं और करेंगे, इसी कारण से श्रोत्रेन्द्रिय-चलना को श्रोत्रेन्द्रियचलना कहा जाता है । इसी प्रकार यावत् स्पर्शेन्द्रिय-चलना तक जानना चाहिए । भगवन् ! मनोयोग-चलना को मनोयोग-चलना क्यों कहा जाता है ? गौतम ! चूंकि मनोयोग को धारण करते हुए जीवों ने मनोयोग के योग्य द्रव्यों को मनोयोग रूप में परिणमाते हुए मनोयोग की चलना की थी, करते हैं और करेंगे; इसलिए हे गौतम ! मनोयोग से सम्बन्धित चलना को मनोयोगचलना कहा जाता है । इसी प्रकार वचनयोग-चलना एवं काययोग चलना जानना । [७०५] भगवन् ! संवेग, निर्वेद, गुरु-साधर्मिक-शुश्रूषा, आलोचना, निन्दना, गर्हणा, क्षमापना, श्रुत-सहायता, व्युपशमना, भाव में अप्रतिबद्धता, विनिवर्तना, विविक्तशयनासनसेवनता, श्रोत्रेन्द्रिय-संवर यावत् स्पर्शेन्द्रिय-संवर, योग-प्रत्याख्यान, शरीर-प्रत्याख्यान, कषायप्रत्याख्यान, सम्भोग-प्रत्याख्यान, उपधि-प्रत्याख्यान, भक्त-प्रत्याख्यान, क्षमा, विरागता, भावसत्य, योगसत्य, करणसत्य, मनःसमन्वाहरण, वचन-समन्वाहरण, काय-समन्वाहरण, क्रोधविवेक, यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक, ज्ञान-सम्पन्नता, दर्शन-सम्पन्नता, चारित्र-सम्पन्नता, वेदनाअध्यासनता और मारणान्तिक-अध्यासनता, इन पदों का अन्तिम फल क्या कहा गया है ? हे आयुष्मन् श्रमण गौतम ! संवेद, निर्वेद आदि यावत्-मारणान्तिक अध्यासनता, इन सभी पदों का अन्तिम फल सिद्धि है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। | शतक-१७ उद्देशक-४ | [७०६] उस काल उस समय में राजगृह नगर में यावत् पूछा-भगवन् ! क्या जीव
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy