SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती - १५/-/-/६३९ उसे स्वीकार नहीं किया । मैं मौन रहा । हे गौतम! मैं राजगृह नगर से निकला और नालन्दा पाड़ा से बाहर मध्य में होता हुआ उस तन्तुवायशाला में आया । वहाँ मैं द्वितीय मासक्षमण स्वीकार करके रहने लगा । फिर, गौतम ! मैं दूसरे मासक्षमण के पारणे नालन्दा के बाहरी भाग के मध्य में से होता हुआ राजगृह नगर में यावत् भिक्षाटन करता हुआ आनन्द गाथापति के घर में प्रविष्ट हुआ । आनन्द गाथापति ने मुझे आते हुए देखा, इत्यादि सारा वृत्तान्त विजय गाथापति के समान । विशेषता यह है कि'मैं विपुल खण्ड-खाद्यादि भोजन-सामग्री से प्रतिलाभूंगा'; यों विचार कर सन्तुष्ट हुआ । यावत्'मैं तृतीय मासक्षमण स्वीकार करके रहा । ११३ गौतम ! तीसरे मासक्षमण के पारण के लिए मैंने यावत् सुनन्द गाथापति के घर में प्रवेश किया । तब सुनन्द गाथापति ने ज्यों ही मुझे आते हुए देखा, इत्यादि सारा वर्णन विजय गाथापति के समान विशेषता यह है कि उसने मुझे सर्वकामगुणित भोजन से प्रतिलाभित किया । यावत् मैं चतुर्थ मासक्षमण स्वीकार करके विचरण करने लगा । उस नालन्दा के बाहरी भाग से कुछ दूर 'कोल्लाक' नाम सन्निवेश था । उस में बहुल नामक ब्राह्मण रहता था । यह आढ्य यावत् अपरिभूत था और ऋग्वेद में यावत् निपुण था । उस बहुल ब्राह्मण ने कार्तिकी चौमासीकी प्रतिपदा के दिन प्रचुर मधु और घृत से संयुक्त परमान्न का भोजन ब्राह्मणों को कराया एवं आचामित कराया । तभी मैं चतुर्थ मासक्षमण के पारणे के लिए नालन्दा के बाहरी भाग के मध्य में होकर कोल्लाक सन्निवेश आया । वहाँ उच्च, नीच, मध्यम कुलों में भिक्षार्थ पर्यटन करता हुआ मैं बहुल ब्राह्मण के घर में प्रविष्ट हुआ । उस समय बहुल ब्राह्मण ने मुझे आते देखा ; यावत्- 'मैं मधु और घी से संयुक्त परमान्न से प्रतिलाभित करूंगा;' ऐसा विचार कर वह सन्तुष्ट हुआ । यावत्- 'बहुल ब्राह्मण का मनुष्यजन्म और जीवनफल प्रशंसनीय है । उस समय मंखलिपुत्र गोशालक ने मुझे तन्तुवायशाला में नहीं देखा तो, राजगृह नगर के बाहर और भीतर सब ओर मेरी खोज की; परन्तु कहीं भी मेरी श्रुति, क्षुति और प्रवृत्ति न पा कर पुनः तन्तुवायशाला में लौट गया । वहाँ उसने शाटिकाएँ, पाटिकाएँ, कुण्डिकाएँ, उपानत् एवं चित्रपट आदि ब्राह्मणों को दे दिये । फिर दाढी-मूंछ सहित मुंडन करवाया । इसके पश्चात् वह तन्तुवायशाला से बाहर निकला और नालन्दा से बाहरी भाग के मध्य में से चलता हुआ कोल्लाकसन्निवेश में आया । उस समय उस कोल्लाक सन्निवेश के बाहर बहुत-से लोग परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कह रहे थे, यावत् प्ररूपणा कर रहे थे - 'देवानुप्रियो ! धन्य है बहुल यावत्-बहुल ब्राह्मण का मानवजन्म और जीवनरूप फल प्रशंसनीय है । ब्राह्मण उस समय बहुत-से लोगों से इस बात को सुनकर एवं अवधारण करके उस मंखलिपुत्र गोशालक के हृदय में इस प्रकार का अध्यवसाय यावत् संकल्प समुत्पन्न हुआ- मेरे धर्माचार्य एवं धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर को जैसी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य तथा पुरुषकारपराक्रम आदि उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत हुए हैं, वैसी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम आदि अन्य किसी भी तथारूप श्रमण या माहन को उपलब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत नहीं हैं । इसलिए निःसंदेह मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अवश्य यहीं होंगे, ऐसा विचार करके वह कोल्लाक-सन्निवेश के बाहर और भीतर सब ओर मेरी शोध-खोज करने लगा । सर्वत्र मेरी खोज करते हुए कोल्लाक-सन्निवेश के बाहर के भाग की 4 8
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy