SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती-१४/-/७/६२० १०५ 'भावतुल्य' भावतुल्य कहलाता है । भगवन् ! 'संस्थानतुल्य' को संस्थानतुल्य क्यों कहा जाता है ? गौतम ! परिमण्डलसंस्थान, अन्य परिमण्डल-संस्थान के साथ संस्थानतुल्य है, किन्तु दूसरे संस्थानों के साथ संस्थान से तुल्य नहीं है । इसी प्रकार वृत्त-संस्थान, त्र्यस्त्र-संस्थान, चतुरस्त्रसंस्थान एवं आयतसंस्थान के विषय में भी कहना । एक समचतुरस्त्रसंस्थान अन्य समचतुरस्त्रसंस्थान के साथ संस्थान-तुल्य है, परन्तु समचतुरस्त्र के अतिरिक्त दूसरे संस्थानों के साथ संस्थान-तुल्य नहीं है । इसी प्रकार न्यग्रोधपरिमण्डल यावत् हुण्डकसंस्थान तक कहना चाहिए । इसी कारण से, हे गौतम ! 'संस्थान-तुल्य' संस्थान-तुल्य कहलाता है । [६२१] भगवन् ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार क्या (पहले) मूर्छित यावत् अत्यन्त आसक्त होकर आहार ग्रहण करता है, इसके पश्चात् स्वाभाविक रूप से काल करता है और तदनन्तर अमूर्छित, अगृद्ध यावत् अनासक्त होकर आहार करता है ? हाँ, गौतम ! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार पूर्वोक्त रूप से आहार करता है । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया कि भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार...पूर्वोक्त रूप से आहार करता है ? गौतम! भक्तप्रत्याख्यान करने वाला अनगार (प्रथम) मूर्छित यावत् अत्यन्त आसक्त हो कर आहार करता है । इसके पश्चात् स्वाभाविक रूप से काल करता है । इसके बाद आहार के विषय में अमूर्च्छित यावत् अमृद्ध हो कर आहार करता है । [६२२] भगवन् ! क्या लवसप्तम देव 'लवसप्तम' होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं । भगवन् ! उन्हें 'लवसप्तम' देव क्यों कहते हैं ? गौतम ! जैसे कोई तरुण पुरुष यावत् शिल्पकला में निपुण एवं सिद्धहस्त हो, वह परिपक्व, काटने योग्य अवस्था को प्राप्त, पीले पड़े हुए तथा पीले जाल वाले, शालि, व्रीहि, गेहूँ, जौ, और जवजव की बिखरी हुई नालों को हाथ से इकट्ठा करके मुट्ठी में पकड़ कर नई धार पर चढ़ाई हुई तीखी दरांती से शीघ्रतापूर्वक 'ये काटे, ये काटे'-इस प्रकार सात लवों को जितने समय में काट लेता है, हे गौतम ! यदि उन देवों का इतना अधिक आयुष्य होता तो वे उसी भव में सिद्ध हो जाते, यावत् सर्व-दुःखों का अन्त कर देते । इसी कारण से, हे गौतम ! उन देवों को 'लवसप्तम' कहते हैं । [६२३] भगवन् ! क्या अनुत्तरौपपातिक देव, अनुत्तरौपपातिक होते हैं ? हाँ, गौतम ! होते हैं । भगवन् ! वे अनुत्तरौपपातिक देव क्यों कहलाते हैं ? गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देवों को अनुत्तर शब्द, यावत्-अनुत्तर स्पर्श प्राप्त होते हैं, इस कारण, हे गौतम ! अनुत्तरौपपातिक देवों को अनुत्तरौपपातिक देव कहते हैं । भगवन् ! कितने कर्म शेष रहने पर अनुत्तरौपंपातिक देव, अनुत्तरौपपातिक देवरूप में उत्पन्न हुए हैं ? गौतम ! श्रमणनिर्ग्रन्थ षष्ठ-भक्त तप द्वारा जितने कर्मों की निर्जरा करता है, उतने कर्म शेष रहने पर अनुत्तरौपपातिक-योग्य साधु, अनुत्तरौपपातिक देवरूप में उत्पन्न हुए हैं । हे भगवन् यह इसी प्रकार है । | शतक-१४ उद्देशक-८ [६२४] भगवन् ! इस रत्नप्रभातृत्वी और शर्कराप्रभा पृथ्वी का कितना अबाधा-अन्तर है ? गौतम ! असंख्यात हजार योजन का है । भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी और बालुकाप्रभापृथ्वी का कितना अबाधा-अन्तर है ? गौतम ! पूर्ववत् । इसी प्रकार तमःप्रभा और अधःसप्तमपृथ्वी
SR No.009782
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy