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________________ ७० आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद में (उत्पन्न) हो सकते हैं । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? हे गौतम ! कर्मकृत योनि में स्त्री और पुरुष का जब मैथुनवृत्तिक संयोग निष्पन्न होता है, तब उन दोनों के स्नेह सम्बन्ध होता है, फिर उसमें से जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट लक्षपृथक्त्व जीव पुत्ररूप में उत्पन्न होते हैं । हे गौतम ! इसीलिए पूर्वोक्त कथन किया गया है । [१२९] भगवन् ! मैथुनसेवन करते हुए जीव के किस प्रकार का असंयम होता है ? गौतम ! जैसे कोई पुरुष तपी हुई सोने की (या लोहे की) सलाई (डालकर, उस) से बांस की रूई से भरी हुई नली या बूर नामक वनस्पति से भरी नली को जला डालता है, हे गौतम ! ऐसा ही असंयम मैथुन सेवन करते हुए जीव के होता है । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। [१३०] इसके पश्चात् (एकदा) श्रमण भगवान् महावीर राजगृह नगर के गुणशील उद्यान से निकालकर बाहर जनपदों में विहार करने लगे । उस काल उस समय में तुंगिया नाम की नगरी थी । उस तुंगिका नगरी के बाहर ईशान कोण में पुष्पवतिक नाम का चैत्य था । उस तुंगिकानगरी में बहुत-से श्रमणोपासक रहते थे । वे आढ्य और दीप्त थे । उनके विस्तीर्ण निपुल भवन थे । तथा वे शयनों, आसनों, यानों तथा वाहनों से सम्पन्न थे । उनके पास प्रचुर धन, बहुत-सा सोना-चाँदी आदि था । वे आयोग और प्रयोग करने में कुशल थे । उनके यहाँ विपुल भात-पानी तैयार होता था, और वह अनेक लोगों को वितरित किया जाता था । उनके यहाँ बहुत-सी दासियाँ और दास थे; तथा बहुत-सी गायें, भैंसे, भेड़ें और बकरियाँ आदि थीं । वे बहुत-से मनुष्यों द्वारा भी अपरिभूत थे । वे जीव और अजीव के स्वरूप को भलीभाँति जानते थे । उन्होंने पुण्य और पाप का तत्त्व उपलब्ध कर लिया था । वे आश्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष के विषय में कुशल थे । वे सहायता की अपेक्षा नहीं रखते थे । (वे निर्ग्रन्थ प्रवचन में इतने दृढ़ थे कि) देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग, आदि देवगणों के द्वारा निर्ग्रन्थप्रवचन से अनतिक्रमणीय थे । वे निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति निःशंकित थे, निष्कांक्षित थे, तथा विचिकित्सारहित थे । उन्होंने शास्त्रों के अर्थों को भलीभांति उपलब्ध कर लिया था, शास्त्रों के अर्थों को ग्रहण कर लिया था । पूछकर उन्होंने यथार्थ निर्णय कर लिया था । उन्होंने शास्त्रों के अर्थों और उनके रहस्यों को निर्णयपूर्वक जान लिया था । उनकी हड्डियाँ और मजाएँ (निर्ग्रन्थप्रवचन के प्रति) प्रेमानुराग में रंगी हुई थी । (ईसीलिए वे कहते थे कि-) । _ 'आयुष्मान् बन्धुओ ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ (सार्थक) है, यही परमार्थ है, शेष सब निरर्थक हैं ।' वे इतने उदार थे कि उनके घरों में दरवाजों के पीछे रहने वाली अर्गला सदैव ऊँची रहती थी । उनके घर के द्वार सदा खुले रहते थे । उनका अन्तःपुर तथा परगृह में प्रवेश विश्वसनीय होता था । वे शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि का सम्यक् आचरण करते थे, तथा चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा, इन पर्वतिथियों में प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् अनुपालन करते थे । वे श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पीठ फलक, शय्या, संस्तारक, औषध और भेषज आदि प्रतिलाभित करते थे; और यथाप्रतिगृहीत तपःकर्मों से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे ।
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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