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________________ भगवती - १/-/५/६६ ३९ हैं, वहां प्रतिलोम समझना । वे इस प्रकार हैं- समस्त असुरकुमार लोभोपयुक्त होते हैं, अथवा बहुत-से लोभोपयुक्त और एक मायोपयुक्त होता है; अथवा बहुत से लोभोपयुक्त और मायोपयुक्त होते हैं, इत्यादि रूप से जानना चाहिए । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक समझना । विशेषता यह है कि संहनन, संस्थान, लेश्या आदि में भिन्नता जाननी चाहिए । [ ६७ ] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवासों में से एक-एक आवास में बसने वाले पृथ्वीकायिकों के कितने स्थिति स्थान कहे गये हैं ? गौतम ! उनके असंख्येय स्थिति-स्थान हैं । वे इस प्रकार हैं- उनकी जघन्य स्थिति, एक समय अधिक जघन्यस्थिति, दो समय अधिक जघन्यस्थिति, यावत् उनके योग्य उत्कृष्ट स्थिति । भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के असंख्यात लाख आवासों में से एक-एक आवास में बसने वाले और जघन्य स्थितिवाले पृथ्वीकायिक क्या क्रोधोपयुक्त हैं, मानोपयुक्त हैं, मायोपयुक्त हैं या लोभोपयुक्त हैं ? गौतम ! वे क्रोधोपयुक्त भी हैं, यावत् लोभोपयुक्त भी हैं । इस प्रकार पृथ्वीकायिकों के सब स्थानों में अभंगक है विशेष यह है कि तेजोलेश्या में अस्सी भंग कहने चाहिए । इसी प्रकार अप्काय के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए | तेजस्काय और वायुकाय के सब स्थानों में अभंगक है । वनस्पतिकायिक जीवों के सम्बन्ध में पृथ्वीकायिकों के समान समझना चाहिए । [ ६८ ] जिन स्थानों में नैरयिक जीवों के अस्सी भंग कहे गये हैं, उन स्थानों में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के भी अस्सी भंग होते हैं । विशेषता यह है कि सम्यक्त्व, आभिनिवोधिक ज्ञान, और श्रुतज्ञान- इन तीन स्थानों में भी द्वीन्द्रिय आदि जीवों के अस्सी भंग होते हैं, इतनी बात नारक जीवों से अधिक है । तथा जिन स्थानों में नारक जीवों के सत्ताईस भंग कहे हैं, उन सभी स्थानों में यहाँ अभंगक है । जैसा नैरयिकों के विषय में कहा, वैसा ही पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों के विषय में कहना चाहिए । विशेषता यह है कि जिन-जिन स्थानों में नारक - जीवों के सत्ताईस भंग कहे गये हैं, उन-उन स्थानों में यहाँ अभंगक कहना चाहिए, और जिन स्थानों में नारकों के अस्सी भंग कहे हैं, उन स्थानों में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों के भी अस्सी भंग कहने चाहिए । नारक जीवों में जिन-जिन स्थानों में अस्सी भंग कहे गए हैं, उन उन स्थानों में मनुष्यों के भी अस्सी भंग कहना । नारक जीवों में जिन-जिन स्थानों में सत्ताईस भंग कहे गए हैं उनमें मनुष्यों में अभंगक कहना । विशेषता यह है कि मनुष्यों के जघन्य स्थिति में और आहारक शरीर में अस्सी भंग होते हैं, यही नैरयिकों की अपेक्षा मनुष्यों में अधिक है । वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का कथन भवनपति देवों के समान समझना । विशेषता यह है कि जो जिसका नानात्व- भिन्नत्व है, यावत् अनुत्तरविमान तक कहना । भगवन् ! यह इसी प्रकार है, ऐसा कह कर यावत् विचरण करते हैं । शतक - १ उद्देशक- ६ [६९] भगवन् ! जितने जितने अवकाशान्तर से अर्थात् जितनी दूरी से उदय होता हुआ सूर्य आँखों से शीघ्र देखा जाता है, उतनी ही दूरी से क्या अस्त होता हुआ सूर्य भी दिखाई देता है ? हाँ, गौतम ! जितनी दूर से उदय होता हुआ सूर्य आँखों से दीखता है, उतनी
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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