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________________ २७४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि 'चलमान' 'चलित' है; यावत् (वस्तुतः) निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण नहीं, किन्तु अनिजीर्ण है । जमालि अनगार द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर यावत् प्ररूपणा किये जाने पर कई श्रमण-निर्ग्रन्थों ने इस (उपर्युक्त) बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि की तथा कितने ही श्रमणनिर्ग्रन्थों ने इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि नहीं की । उनमें से जिन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमालि अनगार की इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि की, वे जमालि अनगार को आश्रय करके विचरण करने लगे और जिन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमालि अनगार की इस बात पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की, वे जमालि अनगार के पास से, कोष्ठक उद्यान से निकल गए और अनुक्रम से विचरते हुए एवं ग्रामानुग्राम विहार करते हुए, चम्पा नगरी के बाहर जहाँ पूर्णभद्र नामक चैत्य था और जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके पास पहुँचे । उन्होंने श्रमण भगवान महावीर की तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, फिर वन्दनानमस्कार करके वे भगवान् का आश्रय स्वीकार कर विचरने लगे । [४६७] तदनन्तर किसी समय जमालि-अनगार उस रोगातंक से मुक्त और हृष्ट हो गया तथा नीरोग और बलवान् शरीर वाला हुआ; तब श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकला और अनुक्रम से विचरण करता हुआ एवं ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, जिसमें कि श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, उनके पास आया । वह भगवान् महावीर से न तो अत्यन्त दूर और न अतिनिकट खड़ा रह कर भगवान् से इस प्रकार कहने लगा-जिस प्रकार आप देवानुप्रिय के बहुत-से शिष्य छद्मस्थ रह कर छद्मस्थ अवस्था में ही निकल कर विचरण करते हैं, उस प्रकार मैं छद्मस्थ रह कर छद्मस्थ अवस्था में निकल कर विचरण नहीं करता; मैं उत्पन्न हुए केवलज्ञान-केवलदर्शन को धारण करने वाला अर्हत्, जिन, केवली हो कर केवली विहार से विचरण कर रहा हूँ । इस पर भगवान् गौतम ने जमालि अनगार से इस प्रकार कहा-हे जमालि ! केवली का ज्ञान या दर्शन पर्वत, स्तम्भ अथवा स्तूप आदि से अवरुद्ध नहीं होता और न इनसे रोका जा सकता है । तो हे जमालि ! यदि तुम उत्पन्न केवलज्ञान-दर्शन के धारक, अर्हत्, जिन और केवली हो कर केवली रूप से अपक्रमण (गुरुकुल से निर्गमन) करके विचरण कर रहे हो तो इन दो प्रश्नों का उत्तर दो-लोक शाश्वत है या अशाश्वत है ? एवं जीव शाश्वत है अथवा अशाश्वत है ? भगवन् गौतम द्वारा इस प्रकार जमालि अनगार से कहे जाने पर वह (जमालि) शंकित एवं कांक्षित हुआ, यावत् कलुषित परिणाम वाला हुआ । वह भगवान् गौतमस्वामी को किञ्चित् भी उत्तर देने में समर्थ न हुआ । वह मौन होकर चुपचाप खरा रहा । (तत्पश्चात्) श्रमण भगवान महावीर ने जमालि अनगार को सम्बोधित करके यों कहा-जमालि ! मेरे बहुत-से श्रमण निर्ग्रन्थ अन्तेवासी छद्मनस्थ हैं जो इन प्रश्नों का उत्तर देने में उसी प्रकार समर्थ हैं, जिस प्रकार मैं हूँ, फिर भी इस प्रकार की भाषा वे नहीं बोलते । जमालि ! लोक शाश्वत है, क्योंकि यह कभी नहीं था, ऐसा नहीं है; कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं और कभी न रहेगा, ऐसा भी नहीं है; किन्तु लोक था, है और रहेगा । यह ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अव्यय अवस्थित ओर नित्य है । हे जमालि ! लोक अशाश्वत (भी) है, क्योकि अवसर्पिणी काल होकर उत्सर्पिणी काल होता है, फिर उत्सर्पिणी काल होकर अवसर्पिणी काल होता है । हे जमालि ! जीव शाश्वत है; क्योंकि जीव कभी नहीं था, ऐसा नहीं है; कभी नहीं है, ऐसा नहीं है और कभी नहीं रहेगा, ऐसा भी नहीं है; इत्यादि यावत् जीव नित्य
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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