SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद करते हैं एवं समस्त दुःखों का अन्त करते हैं । परन्तु यह (निर्ग्रन्थधर्म) सर्प की तरह एकान्त दृष्टि वाला है, छुरे या खड्ग आदि तीक्ष्ण शस्त्र की तरह एकान्त धार वाला है । यह लोहे के चने चबाने के समान दुष्कर है; बालु के कौर की तरह स्वादरहित (नीरस) है । गंगा आदि महानदी के प्रतिस्त्रोत गमन के समान अथवा भुजाओं से महासमुद्र तैरने के समान पालन करने में अतीव कठिन है । तीक्ष्ण धार पर चलना है; महाशिला को उठाने के समान गुरुतर भार उठाना है । तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने के समान व्रत का आचरण करना है । हे पुत्र! निर्ग्रन्थ श्रमणों के लिए ये बातें कल्पनीय नहीं हैं । यथा-आधाकर्मिक, औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवपूरक, पूतिक, क्रीत, प्रामित्य, अछेद्य, अनिसृष्ट, अभ्याहृत, कान्तारभक्त, दुर्भिक्षभक्त, ग्लानभक्त, वर्दलिकाभक्त, प्राघर्णकभक्त. शय्यातरपिण्ड और राजपिण्ड | इसी प्रकार मल, कन्द, फल, बीज और हरित-भोजन करना या पीना भी उसके लिए अकल्पनीय है । हे पुत्र ! तू सुख में पला, सुख भोगने योग्य है, दुःख सहन करने योग्य नहीं है । तू शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा को तथा चोर, व्याल, डांस, मच्छरों के उपद्रव को एवं वात, पित्त, कफ एवं सन्निपात सम्बन्धी अनके रोगों के आतंक को और उदय भी आए हुए परीषहों एवं उपसर्गों को सहन करने में समर्थ नहीं है । हे पुत्र ! हम तो क्षणभर में तेरा वियोग सहन करना नहीं चाहते । अतः पुत्र ! जब तक हम जीवित हैं, तब तक तू गृहस्थवास में रह | उसके बाद हमारे कालगत हो जाने पर, यावत् प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना । तब क्षत्रियकुमार जमालि ने माता-पिता को उत्तर देते हुए इस प्रकार कहा-हे मातापिता ! आप मुझे यह जो कहते हैं कि यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य है, अनुत्तर है, अद्वितीय है, यावत् तू समर्थ नहीं है इत्यादि यावत् बाद में प्रव्रजित होना; किन्तु हे माता-पिता ! यह निश्चित्त है कि नामर्दो, कायरों, कापुरुषों तथा इस लोक में आसक्त और परलोक से पराङ्मुख एवं विषयभोगों की तृष्णा वाले पुरुषों के लिए तथा प्राकृतजन के लिए इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन का आचरण करना दुष्कर है; परन्तु धीर, कृतनिश्चय एवं उपाय में प्रवृत्त पुरुष के लिए इसका आचरण करना कुछ भी दुष्कर नहीं है । इसलिए मैं चाहता हूँ कि आप मुझे आज्ञा दे दें तो मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास दीक्षा ले लूं । जब क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता विषय के अनुकूल और विषय के प्रतिकूल बहुत-सी उक्तियों, प्रज्ञप्तियों, संज्ञप्तियों और विज्ञप्तियों द्वारा उसे समझा-बुझा न सके, तब अनिच्छा से उन्होंने क्षत्रियकुमार जमालि को दीक्षाभिनिष्क्रमण की अनुमति दे दी । [४६५] तदनन्तर क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा-शीघ्र ही क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के अन्दर और बाहर पानी का छिड़काव करो, झाड़ कर जमीन की सफाई करके उसे लिपाओ, इत्यादि औपपातिक सूत्र अनुसार यावत् कार्य करके उन कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञा वापस सौंपी । क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने दुबारा उन कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और फिर उनसे इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही जमालि क्षत्रियकुमार के महार्थ महामूल्य, महार्ह और विपुल निष्क्रमणाभिषेक की तैयारी करो । इस पर कौटुम्बिक पुरुषों ने उनकी आज्ञानुसार कार्य करके आज्ञा वापस सौंपी । इसके पश्चात् जमालि क्षत्रियकुमार के माता-पिता ने उसे उत्तम सिंहासन पर पूर्व की ओर मुख करके बिठाया । फिर एक सौ आठ सोने के कलशों से इत्यादि राजप्रश्नीयसूत्र अनुसार यावत् एक सौ आठ मिट्टी के कलशों से सर्वऋद्धि के साथ यावत् महाशब्द के साथ निष्क्रमणाभिषेक किया । निष्क्रमणाभिषेक पूर्ण होने के बाद (जमालिकुमार के माता-पिता ने)
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy