SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती-१/-/१/२१ अधःरूप में नहीं; सुखरूप में परिणत होते हैं, किन्तु दुःखरूप में परिणत नहीं होते । हे भगवन् ! क्या असुरकुमारों द्वारा आहृत-पुद्गल परिणत हुए ? गौतम ! असुरकुमारों के अभिलाप में, अर्थात्-नारकों के स्थान पर 'असुरकुमार' शब्द का प्रयोग करके अचलित कर्म की निर्जरा करते हैं, यहाँ तक सभी आलापक नारकों के समान ही समझना । हे भगवन् ! नागकुमार देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट कुछ कम दो पल्योपम की है । हे भगवन् ! नागकुमार देव कितने समय में श्वास लेते हैं और छोड़ते हैं ? गौतम ! जघन्यतः सात स्तोक में और उत्कृष्टतः मुहुर्त-पृथक्त्व में श्वासोच्छ्वास लेते हैं । भगवन् ! क्या नागकुमारदेव आहारार्थी होते हैं ? हाँ, गौतम ! वे आहारार्थी होते हैं । भगवन् ! नागकुमार देवों को कितने काल के अनन्तर आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? गौतम ! नागकुमार देवों का आहार दो प्रकार का कहा गया है-आभोगनर्वर्तित और अनाभोग-निर्वर्तित । इन में जो अनाभोग-निर्वर्तित आहार है, वह प्रतिसमय विरहरहित (सतत) होता है; किन्तु आभोगनिर्वर्तित आहार की अभिलाषा जघन्यतः चतुर्थभक्त (एक अहोरात्र) पश्चात् और उत्कृष्टतः दिवस-पृथक्त्व के बाद उत्पन्न होती है । शेष “चलित कर्म की निर्जरा करते हैं, किन्तु अचलित कर्म की निर्जरा नहीं करते"; यहाँ तक सारा वर्णन असुरकुमार देवों की तरह समझ लेना चाहिए । इसी तरह सुपर्णकुमार देवों से लेकर स्तनितकुमार देवों तक के भी (स्थिति से लेकर चलित कर्म-निर्जरा तक के) सभी आलापक (पूर्ववत्) कह देने चाहिए । __ भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? गौतम ! जघन्य अन्तुमुहूर्त की, और उत्कृष्टः बाईस हजार वर्ष की है । भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कितने काल में श्वास निःश्वास लेते हैं ? गौतम ! (वे) विमात्रा से-विविध या विषम काल में श्वासोच्छ्वास लेते हैं । भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव आहार के अभिलाषी होते हैं ? हाँ, गौतम ! वे आहारार्थी होते हैं । भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? हे गौतम ! (उन्हें) प्रतिसमय विरहरहित निरन्तर आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है । भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव क्या आहार करते हैं ? गौतम ! वे द्रव्य से अनन्तप्रदेशी द्रव्यों का आहार करते हैं, इत्यादि सब बातें नैरयिकों के समान जानना चाहिए । यावत् पृथ्वीकायिक जीव व्याघात न हो तो छही दिशाओं से आहार लेते हैं । व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आहार लेते हैं । वर्ण की अपेक्षा से काला, नीला, पीला, लाल, हारिद्र तथा शुक्ल वर्ण के द्रव्यों का आहार करते हैं । गन्ध की अपेक्षा से सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध, दोनों गन्ध वाले, रस की अपेक्षा से तिक्त आदि पांचों रस वाले, स्पर्श की अपेक्षा से कर्कश आदि आठों स्पर्श वाले द्रव्यों का आहार करते हैं । शेष सब वर्णन पूर्ववत् ही समझना । सिर्फ भेद यह है- भगवन् ! पृथ्वीकाय के जीव कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का स्पर्श-आस्वादन करते हैं ? गौतम ! वे असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं और अनन्तवें भाग का स्पर्श-आस्वादन करते हैं । यावत्-“हे गौतम ! स्पर्शेन्द्रिय के रूप में साता-असातारूप विविध प्रकार से बार-बार
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy