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________________ भगवती-८/-/४/४०० २१३ गौतम ! पांच-कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी । यहाँ प्रज्ञापनासूत्र का समग्र क्रियापद—'मायाप्रत्ययिकी क्रियाएँ विशेषाधिक है;'-यहाँ तक कहना चाहिए । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । शतक-८ उद्देशक-५ [४०१] राजगृह नगर के यावत् गौतमस्वामी ने पूछा- भगवन् ! आजीविकों ने स्थविर भगवन्तों से पूछा कि ‘सामायिक करके श्रमणोपाश्रय में बैठे हुए किसी श्रावक के भाण्ड-वस्त्र आदि सामान को कोई अपहरण कर ले जाए, वह उस भाण्ड-वस्त्रादि सामान का अन्वेषण करे तो क्या वह अपने सामान का अन्वेषण करता है या पराये सामान का ? गौतम ! वह अपने ही सामान का अन्वेषण करता है, पराये सामान का नहीं । [४०२] भगवन् ! उन शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पोषधोपवास को स्वीकार किये हुए श्रावक का वह अपहृत भाण्ड उसके लिए तो अभाण्ड हो जाता है ? हाँ, गौतम वह भाण्ड उसके लिए अभाण्ड हो जाता है । भगवन् ! तब आप ऐसा क्यों कहते हैं कि वह श्रावक अपने भाण्ड का अन्वेषण करता है, दूसरे के भाण्ड का नहीं ? गौतम ! सामायिक आदि करनेवाले उस श्रावक के मन में हिरण्य मेरा नहीं है, सुवर्ण मेरा नहीं है, कांस्य मेरा नहीं है, वस्त्र मेरे नहीं हैं तथा विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिलाप्रवाल एवं रक्तरत्न इत्यादि विद्यमान सारभूत द्रव्य मेरा नहीं है | किन्तु ममत्वभाव का उसने प्रत्याख्यान नहीं किया है । इसी कारण हे गौतम ! मैं ऐसा कहता हूँ। भगवन् ! सामायिक करके श्रमणोपाश्रय में बैठे हुए श्रावक की पत्नी के साथ कोई लम्पट व्यभिचार करता है, तो क्या वह (व्यभिचारी) श्रावक की पत्नी को भोगता है, या दूसरे की स्त्री को भोगता है ? गौतम ! वह उस श्रावक की पत्नी को भोगता है, दूसरे की स्त्री को नहीं । भगवन् ! शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान और पोषधोपवास कर लेने से क्या उस श्रावक की वह जाया 'अजाया' हो जाती है ? हाँ, गौतम ! हो जाती है । भगवन् ! तब आप ऐसा क्यों कहते हैं कि वह लम्पट उसकी जाया को भोगता है, अजाया को नहीं भोगता । गौतम ! शीलव्रतादि को अंगीकार करने वाले उस श्रावक के मन में ऐसे परिणाम होते हैं कि माता मेरी नहीं हैं, पिता मेरे नहीं हैं, भाई मेरा नहीं है, बहन मेरी नहीं है, भार्या मेरी नहीं है, पुत्र मेरे नहीं हैं, पुत्री मेरी नहीं है, पुत्रवधू मेरी नहीं है, किन्तु इन सबके प्रति उसका प्रेम बन्धन टूटा नहीं है । इस कारण हे गौतम ! मैं ऐसा कहता हूँ। - भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने (पहले) स्थूल प्राणातिपात का प्रत्याख्यान नहीं किया, वह पीछे उसका प्रत्याख्यान करता हुआ क्या करता है ? गौतम ! अतीत काल में किए हुए प्राणातिपात का प्रतिक्रमण करता है तथा वर्तमानकालीन प्राणातिपात का संवर करता है एवं अनागत प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता है ।। भगवन ! अतीतकालीन प्राणातिपात आदि का प्रतिक्रमण करता हआ श्रमणोपासक, क्या १. त्रिविध-त्रिविध (तीन करण, तीन योग से), २. त्रिविध-द्विविध, ३. त्रिविधएकविध, ४. द्विविध-त्रिविध, ५. द्विविध-द्विविध, ६. द्विविध-एकविध, ७. एकविध-विविध, ८. एकविध-द्विविध अथवा ९. एकविध-एकविध प्रतिक्रमण करता है । गौतम ! वह त्रिविध
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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