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________________ १३२ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद तत्काल प्रज्वलित अग्निकाय महाकर्मयुक्त यावत् भस्मभूत हो जाता है, उसके पश्चात् यावत् अल्पवेदनायुक्त होता है । [२४६] भगवन् ! कोई पुरुष धनुष को स्पर्श करता है, धनुष का स्पर्श करके वह बाण का स्पर्श (ग्रहण) करता है, बाण का स्पर्श करके स्थान पर से आसनपूर्वक बैठता है, उस स्थिति में बैठकर फैंके जाने वाले बाण को कान तक आयात करे-खींचे, खींच कर ऊँचे आकाश में बाण फेंकता है । ऊँचे आकाश में फैंका हुआ वह बाण, वहाँ आकाश में जिन प्राण, भूत, जीव और सत्त्व को सामने आते हुए मारे उन्हें सिकोड़ दे, अथवा उन्हें ढक दे, उन्हें परस्पर चिपका दे, उन्हें परस्पर संहत करे, उनका संघट्टा-जोर से स्पर्श करे, उनको परिताप-संताप दे, उन्हें क्लान्त करे-थकाए, हैरान करे, एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकाए, एवं उन्हें जीवन से रहित कर दे, तो हे भगवन् ! उस पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती है ? गौतम ! यावत् वह पुरुष धनुष को ग्रहण करता यावत् बाण को फेंकता है, तावत् वहपुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी, और प्राणातिपातिकी, इन पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है । जिन जीवों के शरीरों से वह धनुष बना है, वे जीव भी पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं । इसी प्रकार धनुष की पीठ, जीवा (डोरी), स्नायु एवं बाण पांच क्रियाओं से तथा शर, पत्र, फल और हारू भी पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं । [२४७] 'हे भगवन् ! जब वह बाण अपनी गुरुता से, अपने भारीपन से, अपने गुरुसंभारता से स्वाभाविकरूप से नीचे गिर रहा हो, तब वह (बाण) प्राण, भूत, जीव और सत्त्व को यावत् जीवन से रहित कर देता है, तब उस बाण फैंकने वाले पुरुष को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? गौतम ! जब वह बाण अपनी गुरुता आदि से नीचे गिरता हुआ, यावत् जीवों को जीवन रहित कर देता है, तब वह बाण फैंकने वाला पुरुष कायिकी आदि चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है । जिन जीवों के शरीर से धनुष बना है, वे जीव भी चार क्रियाओं से, धनुष की पीठ चार क्रियाओं से, जीवा और ण्हारू चार क्रियाओं से, बाण तथा शर, पत्र, फल और हारू पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं । 'नीचे गिरते हुए बाण के अवग्रह में जो जीव आते हैं, वे जीव भी कायिकी आदि पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं । [२४८] भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि जैसे कोई युवक अपने हाथ से युवती का हाथ पकड़े हुए हो, अथवा जैसे आरों से एकदम सटी (जकड़ी) हुई चक्र की नाभि हो, इसी प्रकार यावत् चार सौ-पांच सौ योजन तक यह मनुष्यलोक मनुष्यों से ठसाठस भरा हुआ है । भगवन् ! यह सिद्धान्त प्ररूपण कैसे है ? हे गौतम ! अन्यतीर्थियों का यह कथन मिथ्या है । मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि चार-सौ, पाँच सौ योजन तक नरकलोक, नैरयिक जीवों से ठसाठस भरा हुआ है । [२४९] भगवन् ! क्या नैरयिक जीव, एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं, अथवा बहुत से रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? गौतम ! इस विषय में जीवाभिगमसूत्र के समान आलापक यहाँ भी 'दुरहियास' शब्द तक कहना चाहिए । [२५०] 'आधाकर्म अनवद्य-निर्दोष है', इस प्रकार जो साधु मन में समझता है, वह यदि उस आधाकर्म-स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है, तो उसके आराधना नहीं होती । वह यदि उस (आधाकर्म-) स्थान की आलोचना एवं
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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