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________________ भगवती-५/-/४/२३६ १२९ कि जानते-देखते हैं ? गौतम ! उन देवों को अनन्त मनोद्रव्य-वर्गणा लब्ध हैं, प्राप्त हैं, सम्मुख की हुई हैं । इस कारण से यहाँ विराजित केवली भगवान् द्वारा कथित अर्थ, हेतु आदि को वे वहाँ रहे हुए ही जान-देख लेते हैं । [२३७] भगवन् ! क्या अनुत्तरौपपातिक देव उदीर्णमोह हैं, उपशान्त-मोह हैं, अथवा क्षीणमोह हैं ? गौतम ! वे उदीर्ण-मोह नहीं हैं, उपशान्तमोह हैं, क्षीणमोह नहीं है । २३८] भगवन ! क्या केवली भगवान आदानों (इन्द्रियों) से जानते और देखते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! किस कारण से केवली भगवान् इन्द्रियों से नहीं जानते-देखते ?' गौतम ! केवली भगवान् पूर्वदिशा में सीमित भी जानते-देखते हैं, अमित (असीम) भी जानते-देखते हैं, यावत् केवली भगवान् का (ज्ञान और) दर्शन निरावरण है । इस कारण से कहा गया है कि वे इन्द्रियों से नहीं जानते-देखते ।। [२३९] भगवन् ! केवली भगवान् इस समय में जिन आकाश-प्रदेशों पर अपने हाथ, पैर, बाहू और उरू को अवगाहित करके रहते हैं, क्या भविष्यकाल में भी वे उन्हीं आकाशप्रदेशों पर अपने हाथ आदि को अवगाहित करके रह सकते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ?' गौतम ! केवली भगवान् का जीवद्रव्य वीर्यप्रधान योग वाला होता है, इससे उनके हाथ आदि उपकरण चलायमान होते हैं । हाथ आदि अंगों के चलित होते रहने से वर्तमान समय में जिन आकाशप्रदेशों में केवली भगवान् अपने हाथ आदि को अवगाहित करके रहे हुए हैं, उन्हीं आकाशप्रदेशों पर भविष्यकाल में वे हाथ आदि को अवगाहित करके नहीं रह सकते । इसी कारण से यह कहा गया है कि केवली भगवान् इस समय में जिन आकाशप्रदेशों पर अपने हाथ, पैर यावत् उरू को अवगाहित करके रहते हैं, उस समय के पश्चात् आगामी समय में वे उन्हीं आकाशप्रदेशों पर अपने हाथ आदि को अवगाहित करके नहीं रह सकते । [२४०] भगवन् ! क्या चतुर्दशपूर्वधारी (श्रुतकेवली) एक घड़े में से हजार घड़े, एक वस्त्र में से हजार वस्त्र, एक कट में से हजार कट, एक रथ में से हजार रथ, एक छत्र में से हजार छत्र और एक दण्ड में से हजार दण्ड करके दिखलाने में समर्थ हैं ? हाँ, गौतम ! वे ऐसा करके दिखलाने में समर्थ हैं । ___ भगवन् ! चतुर्दशपूर्वधारी एक घट में से हजार घट यावत् करके दिखलाने में कैसे समर्थ हैं ? गौतम ! चतुर्दशपूर्वधारी श्रुतकेवली ने उत्करिका भेद द्वारा भेदे जाते हुए अनन्त द्रव्यों को लब्ध किया है, प्राप्त किया है तथा अभिसमन्वागत किया है । इस कारण से वह उपर्युक्त प्रकार से एक घट से हजार घट आदि करके दिखलाने में समर्थ है । 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर यावत् विचरण करने लगे । | शतक-५ उद्देशक-५ । [२४१] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य शाश्वत, अनन्त, अतीत काल में केवल संयम द्वारा सिद्ध हुआ है ? गौतम ! जिस प्रकार प्रथम शतक के चतुर्थ उद्देशक में कहा है, वैसा ही आलापक यहाँ भी कहना; यावत् ‘अलमस्तु' कहा जा सकता है; यहाँ तक कहना । [२४२] भगवन् ! अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि समस्त
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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