SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद से विनीत है; वह अतिमुक्तक कुमारश्रमण इसी भव से सिद्ध होगा, यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा । अतः हे आर्यो ! तुम अतिमुक्तक कुमारश्रमण की हीलना मत करो, न ही उसे झिड़को, न ही गर्दा और अवमानना करो । किन्तु हे देवानुप्रियो ! तुम अग्लानभाव से अतिमुक्तक कुमारश्रमण को स्वीकार करो, अग्लान भाव से उसकी सहायता करो, और अप्लानभाव से आहार-पानी से विनय सहित उसकी वैयावृत्य करो; क्योकि अतिमुक्तक कुमारश्रमण (इसी भव में या संसार का) अन्त करने वाला है, और चरम शरीरी है । तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर (तत्क्षण) उन स्थविर भगवन्तों ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया । फिर उन स्थविर मुनियों ने अतिमुक्तक कुमारश्रमण को अग्लान भाव से स्वीकार किया और यावत् वे उसकी वैयावृत्य करने लगे । [२२९] उस काल और उस समय में महाशुक्र कल्प से महासामान नामक महाविमान (विमान) से दो महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव श्रमण भगवान् महावीर के पास प्रगट हुए । तत्पश्चात् उन देवों ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करके उन्होंने मन से ही इस प्रकार का ऐसा प्रश्न पूछा-'भगवन् ! आपके कितने सौ शिष्य सिद्ध होंगे यावत् सर्व द:खों का अन्त करेंगे? तत्पश्चात श्रमण भगवान महावीर ने उन देवों को भी मन से ही इस प्रकार का उत्तर दिया-'हे देवानुप्रियो ! मेरे सात सौ शिष्य सिद्ध होंगे, यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे । इस प्रकार उन देवों द्वारा मन से पूछे गए प्रश्न का उत्तर श्रमण भगवान् महावीर ने भी मन से ही इस प्रकार दिया, जिससे वे देव हर्षित, सन्तुष्ट (यावत्) हृदय वाले एवं प्रफुल्लित हुए । फिर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया । मन से उनकी शुश्रूषा और नमस्कार करते हुए यावत् पर्युपासना करने लगे । ___उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार यावत् न अतिदूर और न ही अतिनिकट उत्कुटुक आसन से बैठे हुए यावत् पर्युपासना करते हुए उनकी सेवा में रहते थे । तत्पश्चात् ध्यानान्तरिका में प्रवृत्त होते हुए भगवान् गौतम के मन में इस प्रकार का इस रूप का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ-निश्चय ही महर्द्धिक यावत् महानुभाग दो देव, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निकट प्रकट हुए; किन्तु मैं तो उन देवों को नहीं जानता कि वे कौन-से कल्प से या स्वर्ग से, कौन-से विमान से और किस प्रयोजन से शीघ्र यहाँ आए हैं ? अतः मैं भगवान् महावीर स्वामी के पास जाऊँ और वन्दना-नमस्कार करूं; यावत् पर्युपासना करूं, और ऐसा करके मैं इन और इस प्रकार के उन प्रश्नों को पूछ् । यों श्री गौतम स्वामी ने विचार किया और अपने स्थान से उठे । फिर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी बिराजमान थे, वहाँ आए यावत् उनकी पर्युपासना करने लगे । इसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम से इस प्रकार कहा-'गौतम ! एक ध्यान की समाप्त करके दूसरा ध्यान प्रारम्भ करने से पूर्व तुम्हारे मन में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि मैं देवों सम्बन्धी तथ्य जानने के लिए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की सेवा में जा कर उन्हें वन्दन-नमस्कार करूं, यावत् उनकी पर्युपासना करूं, उसके पश्चात् पूर्वोक्त प्रश्न पू, यावत् इसी कारण से जहाँ मैं हूँ वहाँ तुम मेरे पास शीघ्र आए हो । 'हाँ, भगवन् ! यह बात ऐसी ही है ।' (भगवान् महावीर स्वामी ने कहा-) 'गौतम ! तुम जाओ । वे देव ही इस
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy