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________________ भगवती-३/-/५/१८९ १०९ के रूप को, हाथी के रूप को, सिंह, बाघ, भेड़िये, चीते, रीछ, छोटे व्याघ्र अथवा पराशर के रूप का अभियोग करने में समर्थ है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । वह बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके (पूर्वोक्त रूपों का अभियोग करने में) समर्थ है । भगवन् ! भावितात्मा अनगार, एक बड़े अश्व के रूप का अभियोजन करके अनेक योजन तक जा सकता है ? हाँ, गौतम ! वह वैसा करने में समर्थ है । भगवन् ! क्या वह (इतने योजन तक) आत्मवृद्धि से जाता है या पर-ऋद्धि से जाता है ? गौतम ! वह आत्मऋद्धि से जाता है, परऋद्धि से नहीं जाता । इसी प्रकार वह अपनी क्रिया (स्वकम) से जाता है. परकर्म से नहीं. आत्मप्रयोग से जाता है. किन्त परप्रयोग से नहीं । वह उच्छितोदय (सीधे खड़े) रूप भी जा सकता है और पतितोदय (पड़े हुए) रूप में भी जा सकता है । वह अश्वरूपधारी भावितात्मा अनगार, क्या अश्व है ? गौतम ! वह अनगार है, अश्व नहीं । इसी प्रकार पराशर तक के रूपों के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए । भगवन् ! क्या मायी अनगार, विकुर्वणा करता है, या अमायी अनगार करता है ? गौतम ! मायी अनगार विकुर्वणा करता है, अमायी अनगार विकुर्वणा नहीं करता । मायी अनगार उस-उस प्रकार का विकुर्वणा करने के पश्चात् उस स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल करता है, इस प्रकार वह मृत्यु पाकर आभियोगिक देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होता है । किन्तु अमायी अनगार उस प्रकार की विकुर्वणाक्रिया करने के पश्चात् पश्चात्तापपूर्वक उक्त प्रमादरूप दोष-स्थान का आलोचन-प्रतिक्रमण करके काल करता है, और वह मर कर अनाभियोगिक देवलोकों में से किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होता है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । [१९०] स्त्री, तलवार, पताका, यज्ञोपवीत, पल्हथी, पर्यंकासन इन सब रूपों के अभियोग और विकुर्वणा-सम्बन्धी वर्णन इस उद्देशक में है । तथा ऐसा कार्य मायी करता है। शतक-३ उद्देशक-६ [१९१] भगवन् ! राजगृह नगर में रहा हुआ मिथ्यादृष्टि और मायी भावितात्मा अनगार वीर्यलब्धि से, वैक्रियलब्धि से और विभंगज्ञानलब्धि से वाराणसी नगरी की विकुर्वणा करके क्या तद्गत रूपों को जानता-देखता है ? हाँ, गौतम ! वह को जानता और देखता है । भगवन् ! क्या वह (उन रूपों को) यथार्थरूप से जानता-देखता है, अथवा अन्यथाभाव से जानता-देखता है ? गौतम ! वह तथाभाव से नहीं जानता-देखता, किन्तु अन्यथाभाव से जानता-देखता है । भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? गौतम ! उस (तथाकथित अनगार) के मन में इस प्रकार का विचार होता है कि वाराणसी नगरी में रहे हुए मैंने राजगृहनगर की विकुर्वणा की है और विकुर्वणा करके मैं तद्गत रूपों को जानता-देखता हूँ । इस प्रकार उसका दर्शन विपरीत होता है । इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि वह तथाभाव से नहीं जानता-देखता, किन्तु अन्यथा भाव से जानता-देखता है ।' भगवन् ! वाराणसी में रहा हुआ मायी मिथ्यादृष्टि भावितात्मा अनगार, यावत् राजगृहनगर की विकुर्वणा करके वाराणसी के रूपों को जानता और देखता है ? हाँ, गौतम ! वह उन रूपों को जानता और देखता है । यावत्-उस साधु के मन में इस प्रकार का विचार होता है कि
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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