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________________ १०४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा है कि ऐसे जीव की यावत् अन्तक्रिया मुक्ति हो जाती है ? मण्डितपुत्र ! जब वह जीव सदा (के लिए) समितरूप से (भी) कम्पित नहीं होता, यावत् उन-उन भावों में परिणत नहीं होता, तब वह जीव आरम्भ नहीं करता, संरम्भ नहीं करता एवं समारम्भ भी नहीं करता, और न ही वह जीव आरम्भ में, संरम्भ में एवं समारम्भ में प्रवृत्त होता है । आरम्भ, संरम्भ और समारम्भ नहीं करता हुआ तथा आरम्भ, संरम्भ और समारम्भ में प्रवृत्त न होता हुआ जीव, बहुत-से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों को दुःख पहुँचाने में यावत् परिताप उत्पन्न करने में प्रवृत्त नहीं होता । (भगवान्-) 'जैसे, कोई पुरुष सूखे घास के पूले को अग्नि में डाले तो क्या मण्डितपुत्र ! वह सूखे घास का पूला अग्नि में डालते ही शीघ्र जल जाता है ? (मण्डितपुत्र-) हाँ, भगवन् ! वह शीघ्र ही जल जाता है । (भगवान्-) जैसे कोई पुरुष तपे हुए लोहे के कड़ाह पर पानी की बूंद डाले तो क्या मण्डितपुत्र ! तपे हुए लोहे के कड़ाह पर डाली हुई वह जलबिन्दु अवश्य ही शीघ्र नष्ट हो जाती है ? हाँ, भगवन् ! वह जलबिन्दु शीघ्र नष्ट हो जाती है । (भगवान्-) 'कोई एक सरोवर है, जो जल से पूर्ण हो, पूर्णमात्रा में पानी से भरा हो, पानी से लबालब भरा हो, बढ़ते हुए पानी के कारण उसमें से पानी छलक रहा हो, पानी से भरे हुए घड़े के समान क्या उसमें पानी व्याप्त हो कर रहता है ?' हाँ, भगवन् ! उसमें पानी व्याप्त हो कर रहता है । (भगवान्-) अब उस सरोवर में कोई पुरुष, सैकड़ों छोटे छिद्रों वाली तथा सैकड़ों बड़े छिद्रों वाली एक बड़ी नौका को उतार दे, तो क्या मण्डितपुत्र ! वह नौका उन छिद्रों द्वारा पानी से भरती-भरती जल से परिपूर्ण हो जाती है ? पूर्णमात्रा में उसमें पानी भर जाता है ? पानी से वह लबालब भर जाती है ? उसमें पानी बढ़ने से छलकने लगता है ? (और अन्त में) वह (नौका) पानी से भरे घड़े की तरह सर्वत्र पानी से व्याप्त हो कर रहती है ? हाँ, भगवन् ! वह जल से व्याप्त होकर रहती है । यदि कोई पुरुष उस नौका के समस्त छिद्रों को चारों ओर से बन्द कर दे, और वैसा करके नौका की उलीचनी से पानी को उलीच दे तो हे मण्डितपुत्र ! नौका के पानी को उलीच कर खाली करते ही क्या वह शीघ्र ही पानी के ऊपर आ जाती है ? हाँ भगवन् ! आ जाती है ।। __ हे मण्डितपुत्र ! इसी तरह अपनी आत्मा द्वारा आत्मा में संवृत हुए, ईर्यासमिति आदि पांच समितियों से समित तथा मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियों से गुप्त, ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों से गुप्त, उपयोगपूर्वक गमन करने वाले, ठहरने वाले, बैठने वाले, करवट बदलने वाले तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोञ्छनं रजोहरण के साथ उठाने और रखने वाले अनगार को भी अक्षिनिमेष-मात्र समय में विमात्रापूर्वक सूक्ष्म ईर्यापथिकी क्रिया लगती है । वह (क्रिया) प्रथम समय में बद्ध-स्पृष्ट द्वितीय समय में वेदित और तृतीय समय में निर्जीर्ण हो जाती है । इसी कारण से, हे मण्डितपुत्र ! ऐसा कहा जाता है कि जब वह जीव सदा (के लिए) समितरूप से भी कम्पित नहीं होता, यावत् उन-उन भावों में परिणत नहीं होता, तब अन्तिम समय में उसकी अन्तक्रिया हो जाती है । [१८२] भगवन् ! प्रमत्त-संयम में प्रवर्तमान प्रमत्तसंयत का सब मिला कर प्रमत्तसंयमकाल कितना होता है ? मण्डितपुत्र ! एक जीव की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि-होता है । अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वकाल होता है ।
SR No.009781
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages290
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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