SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थान-४/१/२७७ [२७७] चार प्रकार के प्रायश्चित्त कहे गये हैं, यथा-ज्ञानप्रायश्चित्त, दर्शनप्रायश्चित्त, चारित्रप्रायश्चित्त, व्यक्तकृत्यप्रायश्चित्त, चार प्रकार के प्रायश्चित्त कहे गये हैं, यथा-परिषेवना प्रायश्चित्त, संयोजना प्रायश्चित्त आरोपण प्रायश्चित्त परिकुंचन प्रायश्चित्त (२७८] चार प्रकार का काल कहा गया हैं, यथा-प्रमाणकाल, यथायुर्निवृत्तिकाल मरणकाल, अद्धाकाल । [२७९] पुद्गलों का चार प्रकार का परिणमन कहा गया हैं, यथा-वर्णपरिणाम, गंधपरिणाम, रसपरिणाम, स्पर्शपरिणाम । [२८०] भरत और ऐवत क्षेत्र में प्रथम और अन्तिम तीर्थकर को छोड़कर मध्य के बावीस अर्हन्त भगवान् चातुयाम धर्म की प्ररूपणा करते हैं, यथा- सब प्रकार की हिंसा से निवृत्त होना, सब प्रकार के झूठ से निवृत्त होना सब प्रकार के अदत्तादान से निवृत्त होना, सब प्रकार के बाह्य पदार्थो के आदान से निवृत्त होना । सब महाविदेहों में अर्हन्त भगवान् चातुर्याम धर्म का प्ररूपण करते हैं, यथा- सब प्रकार के प्राणातिपात से यावत्-सब प्रकार के बाह्य पदार्थों के आदान से निवृत्त होना । [२८१] चार प्रकार की दुर्गतियां कही गईं हैं, यथा-नैरयिकदुर्गति, तिर्यंचयोनिक दुर्गति, मनुष्यदुर्गति, देवदुर्गति । चार प्रकार की सुगतियां कही गई हैं, यथा-सिद्ध सुगति, देव सुगति, मनुष्यसुगति, श्रेष्ठ कुलमें जन्म । चार दुर्गतिप्राप्त कहे गये हैं, यथा-नैरयिक दुर्गतिप्राप्त, तिर्यंचयोनिक दुर्गतिप्राप्त । मनुष्य दुर्गतिप्राप्त, देव दुर्गतिप्राप्त । चार सुगति प्राप्त कहे गये हैं, यथा-सिद्ध सुगति प्राप्तयावत्-श्रेष्ठ कुल में जन्म प्राप्त । [२८२] प्रथम समय जिन के चार कर्म-प्रकृतियां क्षीण होती हैं, यथा-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय । केवल ज्ञान-दर्शन जिन्हें उत्पन्न हुआ हैं, ऐसे अर्हन, जिन केवल चार कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं, यथा-वेदनीय, आयुष्य, नाम और गौत्र । प्रथम समय सिद्ध के चार कर्मप्रकृतियां एक साथ क्षीण होती हैं, यथा-वेदनीय, आयुष्य, नाम और गौत्र ।। [२८३] चार कारणों से हास्य की उत्पत्ति होती हैं, यथा-देखकर, बोलकर, सुनकर और स्मरण कर । [२८४] चार प्रकार के अन्तर कहे गये हैं-यथा-काष्ठान्तर, पक्ष्मान्तर, लोहान्तर, प्रस्तरान्तर | इसी तरह स्त्री-स्त्री में और पुरुष-पुरुष में भी चार प्रकार का अन्तर कहा गया हैं, काष्ठान्तर के समान, पक्ष्नान्तर के समान, लोहान्तर के समान, प्रस्तरान्तर के समान । [२८५] चार प्रकार के कर्मकर कहे गये हैं, यथा-दिवसभृतक, यात्राभृतक, उच्चताभृतक, कब्बाडभृतक । [२८६] चार प्रकार के पुरुष कहे गये हैं,यथा-कितनेक प्रकट रूप से दोष का सेवन करते हैं किन्तु गुप्त रूप से नहीं, कितनेक गुप्तरूप से दोष का सेवन करते हैं किन्तु प्रकट रूप से नहीं, कितनेक प्रकट रूप से भी और गुप्त रूप से भी दोष सेवन करते हैं, कितनेक न तो प्रकट रूप में और न गुप्त रूप में दोष का सेवन करते हैं । [२८७] असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर के सोम महाराजा. (लोकपाल) की चार
SR No.009780
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy