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________________ १४६ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद करूं? मैं भविष्य में भी यह पाप करूंगा-अतः मैं आलोचना कैसे करूँ | मेरी अपकीर्ति होगी अतः मैं आलोचना कैसे करूं ? मेरा अपयश होगा अतः मैं आलोचना कैसे करूँ ? पूजा प्रतिष्ठा की हानि होगी अतः मैं आलोचना कैसे करूँ ? कीर्ति की हानि होगी अतः मैं आलोचना कैसे करूं ? मेरे यश की हानि होगी अतः मैं आलोचना कैसे करूं ? । ___आठ कारणों से मायावी माया करके आलोयणा करता है यावत्-प्रायश्चित्त स्वीकार करता है, यथा-मायावी का यह लोक निन्दनीय होता है अतः मैं आलोचना करूँ । उपपात निन्दित होता है । भविष्य का जन्म निन्दनीय होता है । एक वक्त माया करे आलोचना न करे तो आराधक नहीं होता है । एक वक्त माया करके आलोचना करे तो आराधक होता है । अनेकबार माया करके आलोचना न करे तो आराधक नहीं होता है । अनेक बार माया करके भी आलोचना करे तो आराधक होता है । मेरे आचार्य और उपाध्याय विशिष्टज्ञान वाले है, वे जानेंगे कि “यह मायावी है" अतः मैं आलोचना करूं यावत्-प्रायश्चित्त स्वीकार करूं । माया करने पर मायावी का हृदय किस प्रकार पश्चात्ताप से दग्ध होता रहता है यह यहां पर उपभा द्वारा बताया गया है । जिस प्रकार लोहा, तांबा, कलई, शीशा, रूपा और सोना गलाने की भट्ठी, तिल, तुस, भुसा, नल और पत्तों की अग्नि । दारु बनाने की भट्टी, मिट्टी के बर्तन, गोले, कवेलु, ईंट आदि पकाने का स्थान, गुड़ पकाने की भट्ठी और लुहार की भट्ठी में के शूले के फूल और उल्कापात जैसे जाज्वल्यमान, हजारों चिनगारियां जिनसे उछल रही हैं ऐसे अंगारों के समान मायावी का हृदय पश्चात्ताप रूप अग्नि से निरन्तर जलता रहता है । मायावी को सदा ऐसी आशंका बनी रहती है कि ये सब लोग मेरे पर ही शंका करते हैं । मायावी माया करके आलोचना किये बिना यदि मरता है और देवों में उत्पन्न होता है तो वह महर्धिक देवों में यावत् सौधर्मादि देव लोकों में उत्पन्न नहीं होता है । उत्कृष्ट स्थिति वाले देवों में भी वह उत्पन्न नहीं होता है । उस देव की बाह्य या आभ्यन्तर परिषद् भी उसके सामने आती है लेकिन परिषद् के देव उस देव का आदर समादर नहीं करते हैं, तथा उसे आसन भी नहीं देते हैं । वह यदि किसी देव को कुछ कहता है तो चार पांच देव उसके सामने आकर उसका अपमान करते हैं और कहते हैं कि बस अब अधिक कुछ न कहो जो कुछ कहा यही बहुत है । आयु पूर्ण होने पर वह देव वहां से च्यवकर इस मनुष्य लोक में हलके कुलों में उत्पन्न होता है । यथा-अन्त कुल, प्रांत कुल, तुच्छ कुल, दरिद्र कुल, भिक्षुक कुल, कृपण कुल आदि । इन कुलों में भी वह कुरूप, कुवर्ण, कुगन्ध, कुरस, और कुस्पर्शवाला होता है | अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, हीनस्वर, दीनस्वर, अनिष्टस्वर, अकान्तस्वर, अप्रियस्वर, अमनोज्ञस्वर, अमनामस्वर, और अनादेय वचन वाला वह होता है । उसके आसपास के लोग भी उसका आदर नहीं करते हैं वह कुछ किसी को उपालम्भ देने लगता है तो उसे चार पांच जने मिल कर रोकते हैं और कहने लगते है कि बस अब कुछ न कहो । किन्तु मायावी माया करने पर यदि आलोचना करके मरे तो वह ऋद्धिमान् तथा उत्कृष्ट स्थितिवाला देव होता है, हार से उसका वक्षस्थल सुशोभित होता है, हाथ में कंकण तथा मस्तक पर मुकुट आदि अनेक प्रकार के आभूषणों से वह सुन्दर शरीर से दैदीप्यमान होता है, वह दिव्य भोगोपभोगों को भोगता है । वह कुछ कहने लगता है तो उसे चार पाँच देव आकर उत्साहित करते हैं और कहने लगते हैं कि आप खूब बोले । वह देव देवलोक से च्यवकर
SR No.009780
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
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