SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद ऊपर सौधर्म देवलोक पर्यन्त लोक देखता है तो-जिस दिशा में उसने लोक देखा हैं उसी दिशा में लोक हैं अन्य दिशा में नहीं है-ऐसी प्रतीति उसे होती है और वह मानने लगता है कि मुझे ही विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न हुआ है और वह दूसरों को ऐसा कहता है कि जो लोग “पांच दिशाओं में लोक है" ऐसा कहते हैं वे मिथ्या कहते हैं । द्वितीय विभंग ज्ञान-किसी श्रमण-ब्राह्मण को पांच दिशा का लोकाभिगम ज्ञान उत्पन्न होता है । अतः वह पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तरदिशा में तथा ऊपर सौधर्म देवलोक पर्यन्त लोक देखता है तो उस समय उसे यह अनुभव होता है कि लोक पांच दिशाओं में ही हैं । तथा यह भी अनुभव होता है कि मुझे ही अतिशय ज्ञान उत्पन्न हुआ है । और वह यों कहने लगता है कि जो लोग “एक ही दिशा में लोक है" ऐसा कहते हैं वे मिथ्या हैं । तृतीय विभंग ज्ञान-किसी श्रमण या ब्राह्मण को क्रियावरण जीव नाम का विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है तो वह जीवों को हिंसा करते हुए, झुठ बोलते हुए, चोरी करते हुए, मैथुन करते हुए, परिग्रह में आसक्त रहते हुए और रात्रि भोजन करते हुए देखता है किन्तु इन सब कृत्यों से जीवों के पाप कर्मों का बन्ध होता है यह नहीं देख सकता उस समय उसे यह अनुभव होता है कि मुझे ही अतिशय ज्ञान उत्पन्न हुआ है । और वह यों मानने लगता है कि जीव के आवरण (कर्म बन्ध) क्रिया रूप ही है । साथ ही यह भी कहने लगता है कि जो श्रमण ब्राह्मण “जीव के क्रिया से आवरण (कर्म बन्ध) नहीं होता" ऐसा कहते हैं वे मिथ्या हैं । चतुर्थ विभंग ज्ञान-किसी श्रमण ब्राह्मण को मुदयविभंग ज्ञान उत्पन्न होता है तो वह बाह्य और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण करके तथा उनके नाना प्रकार के स्पर्श करके नाना प्रकार के शरीरों की विकुर्वणा करते हुए देवताओं को देखता है उस समय उसे यह अनुभव होता है कि मुझे ही अतिशय वाला ज्ञान उत्पन्न हुआ है अतः मैं देख सकता हूँ कि जीव मुदा अर्थात् बाह्य और आभ्यन्तर पुद्गलों को ग्रहण करके शरीर रचना करने वाला है । “जो लोग जीव को अमुदय कहते हैं वे मिथ्या कहते हैं" ऐसा वह कहने लगता है । पंचम विभंग ज्ञान-किसी श्रमण ब्राह्मण को अमुदय विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है तो वह आभ्यन्तर और बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना ही देवताओं को विकुर्वणा करते हुए देखता है । उस समय उसे ऐसा अनुभव होता है कि मुझे ही अतिशय ज्ञान उत्पन्न हुआ है अतः मैं देख सकता हूँ “जीव अमुदय है" और वह यों कहने लगता है कि जो लोग जीव को मुदय समझते हैं वे मिथ्यावादी हैं । छठा विभंग ज्ञान-किसी श्रमण ब्राह्मण को जब रूपीजीव नाम का विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है तब वह उस ज्ञान से देवताओं को ही बाह्याभ्यन्तर पुद्गल ग्रहण करके या ग्रहण किये बिना विकुर्वणा करते देखता है । उस समय उसे ऐसा अनुभव होता है कि मुझे अतिशय वाला ज्ञान उत्पन्न हुआ है और वह यों मानने लगता है कि जीव तो रूपी है किन्तु जो लोग जीव को अरूपी कहते हैं उन्हें वह मिथ्यावादी कहने लगता है । सप्तम विभंग ज्ञान-किसी श्रमण ब्राह्मण को जब “सर्वे जीवा" नाम का विभंग ज्ञान उत्पन्न होता है तब वह वायु से इधर उधर हिलते चलते कांपते और अन्य पुद्गलों के साथ टकराते हुए पुद्गलों को देखता है उस समय उसे ऐसा अनुभव होता है कि मुझे ही अतिशय वाला ज्ञाना उत्पन्न हुआ है अतः वह यों मानने लगता है कि “लोक में जो कुछ है वह सब
SR No.009780
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy