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________________ आचार-१/३/१/११३ ३३ सुरक्षित होता है) वह खेदज्ञ होता है, अथवा वह क्षेत्रज्ञ होता है ।। जो (शब्दादि विषयों की) विभिन्न पर्यायसमूह के निमित्त से होने वाले शस्त्र (असंयम) के खेद को जानता है, वह अशस्त्र के खेद को जानता है, वह (विषयों के विभिन्न) पर्यायों से होने वाले शस्त्र के खेद को जानता है । कर्मों से मुक्त आत्मा के लिए कोई व्यवहार नहीं होता । कर्म से उपाधि होती है । कर्म का भलीभांति पर्यालोचन करके (उसे नष्ट करने का प्रयत्न करे) [११४] कर्म का मूल जो क्षण - हिंसा है, उसका भलीभाँति निरीक्षण करके (परित्याग करे) । इन सबका सम्यक् निरीक्षण करके संयम ग्रहण करे तथा दो (राग और द्वेप) अन्तों से अद्रश्य होकर रहे । मेधावी साधक उसे (राग-द्वेषादि को) ज्ञात करके (ज्ञपरिज्ञा से जाने और प्रत्याख्यानपरिज्ञा से छोड़े ।) वह मतिमान् साधक (रागादि से मूढ) लोक को जानकर लोकसंज्ञा का त्याग करके (संयमानुष्ठान में) पराक्रम करे । ऐसा मैं कहता हूँ । | अध्ययन-३ उद्देशक-२ [११५] हे आय ! तू इस संसार में जन्म और वृद्धि को देख । तू प्राणियों को (कर्मबन्ध और उसके विपाकरूप दुःख को) जान और उनके साथ अपने सुख (दुःख) का पर्यालोचन कर । इससे त्रैविद्य या अतिविद्य बना हुआ साधक परम (मोक्ष) को जानकर (समत्वदर्शी हो जाता है) । समत्वदर्शी पाप नहीं करता ।। [११६] इस संसार में मनुष्यों के साथ पाश है, उसे तोड़ डाल; क्योंकि ऐसे लोग हिंसादि पापरूप आरंभ करके जीते हैं और आरंभजीवी पुरुष इहलोक और परलोक में शारीरिक, मानसिक काम-भागों को ही देखते रहते हैं, अथवा आरंभजीवी होने से वह दण्ड आदि के भय का दर्शन करते हैं । ऐसे काम-भोगों में आसक्त जन (कर्मों का) संचय करते रहते हैं । (कर्मों की जड़ें) बार-बार सींची जाने से वे पुनः-पुनः जन्म धारण करते हैं । [११७] वह (काम-भोगासक्त मनुष्य) हास्य-विनोद के कारण प्राणियों का वध करके खुशी मनाता है । बाल-अज्ञानी को इस प्रकार के हास्य आदि विनोद के प्रसंग से क्या लाभ है ? उससे तो वह (उन जीवों के साथ) अपना वैर ही बढ़ाता है । [११८] इसलिए अति विद्वान् परम-मोक्ष पद को जान कर जो (हिंसा आदि पापों में) आतंक देखता है, वह पाप नहीं करता । हे धीर ! तू (इस आतंक-दुःख के) अग्र और मूल का विवेक कर उसे पहचान ! वह धीर (रागादि बन्धनों को) परिच्छिन्न करके स्वयं निष्कर्मदर्शी हो जाता है। [११९] वह (निष्कर्मदर्शी) मरण से मुक्त हो जाता है । वह मुनि भय को देख चुका है । वह लोक में परम (मोक्ष) को देखता है । वह राग-द्वेष रहित शुद्ध जीवन जीता है । वह उपशान्त, समित, (ज्ञान आदि से) सहित होता । (अतएव) सदा संयत होकर, मरण की आकांक्षा करता हुआ विचरण करता है ।। (इस जीव ने भूतकाल में) अनेक प्रकार के बहुत से पापकर्मों का बन्ध किया है । [१२०] (उन कर्मों को नष्ट करने हेतु) तू सत्य में धृति कर । इस में स्थिर रहने वाला
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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