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________________ आचार-१/१/६/५३ २३ [५३] तू देख ! संयमी साधक जीव हिंसा में लज्जा का अनुभव करते हैं और उनको भी देख, जो 'हम गृहत्यागी हैं' यह कहते हुए भी अनेक प्रकार के उपकरणों से त्रसकाय का समारंभ करते हैं । त्रसकाय की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्राणों की भी हिंसा करते हैं । इस विषय में भगवान ने परिज्ञा है । कोई मनुष्य इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान, पूजा के लिए, जन्म-मरण और मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं भी त्रयकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है तथा हिंसा करते हुए का अनुमोदन भी करता है । यह हिंसा उसके अहित के लिए होती है । अबोधि के लिए होती है । वह संयमी, उस हिंसा को/हिंसा के कुपरिणामों को सम्यक्प्रकार से समझते हुए संयम में तत्पर हो जावे । भगवान् से या गृहत्यागी श्रमणों के समीप सुनकर कुछ मनुष्य यह जान लेते हैं कि यह हिंसा ग्रन्थि है, मृत्यु है, मोह है, नरक है । फिर भी मनुष्य इस हिंसा में आसक्त होता है । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से त्रसकायिक जीवों का समारंभ करता है । त्रसकाय का समारंभ करता हुआ अन्य अनेक प्रकार के जीवों का भी समारंभ करता है । [५४] मैं कहता हूँ - कुछ मनुष्य अर्चा के लिए जीवहिंसा करते हैं । कुछ मनुष्य चर्म के लिए, मांस, रक्त, हृदय, पित्त, चर्बी, पंख, पूँछ, केश, सींग, विषाण, दांत, दाढ़, नख, स्नायु, अस्थि और अस्थिमज्जा के लिए प्राणियों की हिंसा करते हैं । कुछ प्रयोजन-वश, कुछ निष्प्रयोजन ही जीवों का वध करते हैं । कुछ व्यक्ति (इन्होंने मेरे स्वजनादि की) हिंसा की, इस कारण हिंसा करते हैं । कुछ व्यक्ति (यह मेरे स्वजन आदि की) हिंसा करता है, इस कारण हिंसा करते हैं । कुछ व्यक्ति (यह मेरे स्वजनादि की हिंसा करेगा) इस कारण हिंसा करते हैं ।। [५५] जो त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है, वह इन आरंभ (आरंभजनित कुपरिणामों) से अनजान ही रहता है । जो त्रसकायिक जीवों की हिंसा नहीं करता है, वह इन आरंभो से सुपरिचित है । यह जानकर बुद्धिमान् मनुष्य स्वयं त्रसकाय-शस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों से समारंभ न करवाए, समारंभ करने वालों का अनुमोदन भी न करे । जिसने त्रसकाय-सम्बन्धी समारंभो (हिंसा के हेतुओं/उपकरणों/कुपरिणामों) को जान लिया, वही परिज्ञातकर्मा मुनि होता है । ऐसा मै कहता हुं । अध्ययन-१ उद्देसक-७|| [५६] अतः वायुकायिक जीवों की हिंसा से दुगंछा करने में समर्थ होता है । [५७] साधनाशील पुरुष हिंसा में आतंक देखता है, उसे अहित मानता है । जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को भी जानता है । जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है । इस तुला का अन्वेषण कर, चिन्तन कर! [५८] इस (जिन शासन में) जो शान्ति प्राप्त - (कषाय जिनके उपशान्त हो गये हैं) और दयाहृदय वाले मुनि हैं, वे जीव-हिंसा करके जीना नहीं चाहते । [५९] तू देख ! प्रत्येक संयमी पुरुष हिंसा में लज्जा का अनुभव करता है । उन्हें भी
SR No.009779
Book TitleAgam Sutra Hindi Anuvad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Aradhana Kendra
Publication Year2001
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size9 MB
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