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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अय- २५ www.kobatirth.org ( १९५) समयाए समणी होइ बंमचेरेण बंभणी नाणेण य मुणी होइ तवेण होइ तायसो (९९४) कम्पुणा बंभणी होई कम्मुणा होइ खत्तिओ वईलो कम्पुणा होइ सुद्दो हवइ कम्पुणा (९९५) एए पाउको बुद्धे जेहिं होइ सिणायओ सव्यकम्मविनिम्मुक्कं तं वयं बूम माहणं (९९५) एवं गुणसमाउत्ता जे भवंति दिउत्तमा ते समत्या समुद्धतुं परंअप्पाणमेव य (९९७) एवं तु संसए छिन्ने विजयघोसे य माहणे । समुदाय तयं तं तु जयघोसं महामुर्णि (९९८) तुद्धेय विजयघोसे इगमुदाहु कयंजली महणत्तं जहाभूयं सुद्ध मे उवदंसियं (९९९) तुब्बे जइया जत्राणं तुब्भे वेयविऊ विऊ जो संगविऊ तुम्मे तुम्मे धम्माण पारगा (१०००) तुम्मे समत्था समुखतुं परं अप्पाणमेव य Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तमणुग्राहं करेहम्हं भिक्खेणं भिक्खु उत्तमा (१००१) न कर्ज मज्झ भिक्खेण खिष्यं निक्खमसू दिया मा मिहिसि भयावट्टे घोरे संसारसागरे (१००२) उवलेबो होइ भोगेसु अभोगी नोवलिप्पई भोगी भमइअ संसारे अभोगी विप्पमुचई (१००३) उल्लो सुक्को य दो छूढा गोलया मट्टियामया दो वि आवडिया कुड्ढे जो उल्लो सोऽत्थ लग्गई (१००४) एवं लग्गंति दुम्मेहा जे नरा कामलालसा विरत्ता उ न लग्गंति जहा सुक्के उ गोलए (१००५) एवं से विजयघोसे जयघोसस्स अंतिए अणगारस्स निक्खतो धम्मं सोझा अनुत्तरं (१००६) खवित्ता पुव्वकम्माई संजमेण तवेण य जयघोसविजयघोसा सिद्धि पत्ता अनुत्तरं - ति बेपि ॥ पंचर्विस अायणं समनं ● छबीसइमं अज्झयणं- सामायारी (१००७) सामायारि पदक्खामि सव्वदुक्खविमोक्खणि जं चरिताण निग्गंया तिण्णा संसारसागरं (१००८) पदमा आवस्सिया नाम विइया य निसीहिया आपुच्छणा यतइया चउत्थी पडिपुच्छणा (१००९) पंचमी छंदणा नाम इच्छुकारो प छट्टओ सत्तमो मिच्छारो उ तहकूकारो य अनुमो For Private And Personal Use Only १९७८ -31 ||९७९॥-32 ||R 2011-33 ।।१८७।1-34 ॥१८२॥-35 112311-36 ||R CY||-37 1182411-38 ॥१८६॥१-३० ||९८५|| -40 ||१८|| -41 १९८९1-42 ॥९९०॥-49 1188911-44 ॥९९२॥-1 ।।९९३॥-2 ।। ९९४॥-३ ६१
SR No.009773
Book TitleAgam 43 Uttarajjhayanam Mulsutt 04 Moolam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Shrut Prakashan
Publication Year1996
Total Pages114
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 43, & agam_uttaradhyayan
File Size2 MB
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