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________________ ७ श्री श्रावकाचार जी गाथा-१०९.११२ SOON अनृतं सुतं) मिथ्या शास्त्रों को पढ़ना जिससे अशुद्ध भाव हो वह भी जुआं है (परिणय संपूर्ण इन्द्रियों वाला होकर भी किसी के द्वारा कुछ नहीं जानता है। वह झूठी शपथ आरति संजुक्तं) आर्त भावों में लगे रहना और उन्हीं का बार-बार विचार करना भी करता है, झूठ बोलता है, अति दुष्ट वचन कहता है और क्रोधान्ध होकर पास में जुआं है (जूआ नरस्य भाजन) जुआं नरक का पात्र बनाता है। खड़ी हुई बहिन, माता और बालक को भी मारने लगता है। जुआँरी मनुष्य निरन्तर विशेषार्थ- यहाँ व्यसन के प्रकरण में जुआ खेलना व्यसन के स्वरूप का * चिन्तातुर रहता है। जुआं खेलने में उक्त अनेक भयानक दोष जान करके दर्शन गुण ७ चिन्तातुर रहता है। जुआ खलन वर्णन चल रहा है। ताश, चौपड़, शतरंज या अन्य खेल जिनमें धनादि का दांव को धारण करने वाले उत्तम पुरुष को जुआं का हमेशा के लिये त्याग करना चाहिये। लगाकर हार-जीत का खेल खेला जाता है उसे जुआँ खेलना कहते हैं। इससे (वसुनन्दि श्रावकाचारगाथा ६० से ६९तक) वर्तमान जीवन दु:खमय बनता है और भविष्य में नरक जाना पड़ता है। यह तो आगे मांस भक्षण के दोष कहते हैंत्याज्य है ही क्योंकि इससे परिणामों में निकृष्टता रहती है। यहाँ तारण स्वामी कहते . मासं रौद्र ध्यानस्य, संमूर्छन जन तिस्टते। हैं कि जो बाहर में तो जुआं नहीं खेलते परन्तु अशुद्ध भावों में रमण करते हैं यह भी जलं कंद मूलस्य, साकं संमूर्छनस्तथा ॥ १०९॥ जुआ खेलना है क्योंकि जीव के शुद्ध भावों से मुक्ति और अशद्ध भावों से संसार स्वादं विचलितं जेन,संमूर्छनं तस्य उच्यते । मिलता है इसलिये जीव का सबसे बड़ा जुआं तो यही है। बाहर में जुआं खेलना तो प्रत्यक्ष ही अशुद्धभाव रूप निंदनीय त्याज्य है। खोटे शास्त्र, कथा, कहानी, उपन्यास जे नरा तस्य भुक्तंच, तियचं नरय स्थितं ॥ ११०॥ आदि पढ़ना भी भावों को अशुद्ध करने वाला व्यसन जुआं ही है। विदल संधान बंधानं,अनुरागंजस्य गीयते। आर्त भाव-इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग, पीड़ा चिन्तवन, निदान बंध इन भावों मनस्य भावनं कृत्वा, मासं तस्य न सुद्धये ।। १११ ।। में लगे रहना, दु:खी शोकमय खेद-खिन्न रहना भी जुआं जैसा ही है। यह भाव ही फलं संपूर्न भुक्तं च, संमूर्छन ब्रस विभ्रमं । नरक का पात्र बनाते हैं, क्रिया और भाव यही तो कर्मबन्ध के कारण हैं। 'जुआं खेलने वाले पुरुष को क्रोध मान माया लोभ यह चारों कषाय तीव्र जीवस्य उत्पन्नं दिस्टा,हिंसानंदी मांस दूषनं ॥११२॥ होती हैं, जिससे जीव अधिक पाप को प्राप्त होता है। उस पाप के कारण यह जीव अन्वयार्थ- (मासं रौद्र ध्यानस्य) रौद्र ध्यानों का होना और उनमें ही लगे जन्म, जरा, मरण रूपी तरंगों वाले दःख रूप सलिल से भरे हए और चतर्गति गमन रहना मांस खाना है (संमूर्छन जत्र तिस्टते) जहाँ संमूर्च्छन जीव रहते. ठहरते हैं रूप आवर्ती (भावों) से संयुक्त ऐसे संसार समुद्र में परिभ्रमण करता है। उस संसार (जलं कंद मूलस्य) ऐसे जल और कंद मूलों को (साकं संमूर्च्छनस्तथा) तथा साक में जुआं खेलने के फल से यह जीव शरण रहित होकर छेदन-भेदन,कर्तन आदि के भाजी को जिसमें संमूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति होती है उसे खाना मांस खाने अनन्त दु:ख को पाता है। जुआं खेलने से अन्धा हुआ मनुष्य इष्ट मित्र को कुछ नहीं के समान है। गिनता है। न गुरु को, न माता को और न पिता को ही कुछ समझता है किन्तु (स्वाद विचलितं जेन) जिन खाद्य पदार्थों, भोजन, फल व रसादि का स्वाद स्वच्छन्द होकर पापमयी बहुत से अकार्यों को करता है। जुआ खेलने वाला परुष बिगड़ जावे (संमूर्छनं तस्य उच्यते) उनमें संमूर्च्छन व त्रस जीव पैदा होने लगते हैं स्वजन में, परजन में, स्वदेश में, परदेश में, सभी जगह निर्लज्ज हो जाता है। जआं ऐसा कहते हैं (जे नरा तस्य भुक्तं च) जो मनुष्य ऐसे स्वाद बिगड़े खाद्य पदार्थों को 9 खेलने वाले का विश्वास उसकी माता तक भी नहीं करती है। इस लोक में अग्नि, खाता है (तिर्यंचं नरय स्थितं)उसे तिर्यंच और नरक गति जाना पड़ता है। विष, चोर और सर्प तो अल्प दु:ख देते हैं; किन्तु जुआं खेलना मनुष्य के हजारों (विदल संधान बंधानं) द्विदल, दो दाल वाली वस्तु दूध-दही के साथ अचार लाखों भवों में दु:ख को उत्पन्न करता है। आँखों से रहित मनुष्य यद्यपि देख नहीं मुरब्बा आदि (अनुरागंजस्य गीयते) जो इन वस्तुओं को बड़ी रुचि राग पूर्वक खाते हैं सकता है तथापि शेष इन्द्रियों से तोजानता है परंतु जुआ खेलने में अंधा हआ मनुष्य (मनस्य भावनं कृत्वा) मन से खाने की भावना करते हैं (मासं तस्य न सुद्धये) वह ७८
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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