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________________ ७७७ ॐ श्री आवकाचार जी जाल फैलाते हैं (पास विस्वास मूढयं) इनका विश्वास करके मूढ़ लोग फंस जाते हैं। (वनं जीवा गणं रुदनं) वन के जीव हिरन आदि जाल में फंसने के बाद रुदन करते हैं (अहं बंधंति जन्मयं) अब हमारी मौत आ गई, हम इस जन्म में नहीं छूट सकते (अगुरुं लोक मूढस्य) अगुरु खोटे गुरु के जाल में फंसे लोकमूढ़ता वाले जीव (बंधते जन्म जन्मयं) जन्म जन्मान्तर के लिये बंध जाते हैं। A YA YESU Ar yr. बिशेषार्थ - कुगुरु का स्वरूप क्या है, उनका संग कितना दुःखदायी होता है यहां इसका उदाहरण दिया जा रहा है कि जैसे- पारधी शिकारी, हिंसक होते हैं। जो नाना वेष बनाये हमेशा अपने साथ जाल और शिकार का सामान लिये रहते हैं तथा चारों तरफ शिकार के लिये नाना प्रकार के जाल फैलाये रहते हैं। वह भी जंगल में और उसके आस-पास ही रहते हैं और हमेशा शिकार की खोज में ही घूमते रहते हैं। इसी प्रकार इन कुगुरुओं की भी एक जमात होती है। इनके साथी अनुयायी भी इस प्रकार संसारी जीवों को अधर्म रूपी जाल में फंसाने के लिये चारों तरफ घूमते रहते हैं। इस भयानक घोर संसार रूपी वन से निकलने के लिये जीव छटपटाते हैं। और इन कुगुरुओं के जाल में फंस जाते हैं। यह ऐसा विश्वास दिलाते हैं, इतना छल छिद्र मायाचारी फैलाते हैं कि लोग इनके जाल में फंस जाते हैं ऐसी झूठी कपोलकल्पित बातें गढ़ते हैं कि अमुक जगह अमुक देव गड़े थे, उनने स्वप्न • दिया । वहाँ ऐसी मूर्ति निकली उसमें ऐसे चमत्कार हैं। उसकी मान्यता करने से फलाँ का यह हो गया, किसी को धन मिल गया, किसी को पुत्र पैदा हो गया, किसी का रोग दूर हो गया, उसने ऐसी मान्यता की थी तो उसका ऐसा काम हो गया, उसने विराधना की तो उसे ऐसा दंड मिला, पुत्र मर गया, धन चला गया आदि नाना प्रकार के प्रलोभन और भय दिखाकर कुदेव, अदेव आदि की पूजा मान्यता में फंसा लेते हैं। संसारी जीव इनके विश्वास में फंस जाते हैं। जंगल में फंसे हुए हिरन आदि तो एक जन्म के लिये ही रुदन करते हैं परंतु इन कुगुरु, अगुरुओं के जाल में फंसे जीव तो जन्म-जन्मान्तर तक रोते रहते हैं; क्योंकि उनका फिर इस संसार रूपी वन से निकलना मुश्किल हो जाता है। > पारधी के पाल में फंसकर पशुओं को एक जन्म में ही रुदन कर-करके दुःख उठाना पड़ते हैं परन्तु जो कुगुरु रूपी पारधी के जाल में फंस जाते हैं, वे जन्म-जन्म में दुःख उठाते हैं। मूढ़ प्राणी संसार शरीर भोगों का लोलुपी होते हुए कुगुरु के अधर्ममय उपदेश का और कुगुरु का विश्वास कर लेते हैं। अनेक कुदेवों 24 गाथा- ८६-८७X को व अदेवों को पूजते हैं, मन में भय रखते हैं कि यदि इनको न मानेंगे तो यह हमसे नाराज होकर हमारा अनिष्ट कर देंगे। इस तरह कुदेव, कुगुरु, कुधर्म को मानते हुए विकथाओं के राग में फंसे रहते हैं। 'विकहा अधर्म मूलस्य' विकथा अधर्म की जड़ है, जिसमें मूढ प्राणी फंसे रहते हैं। झूठी-सच्ची कपोल कल्पित मनगढन्त इधर-उधर की सुनी सनाई बातें करना, राजकथा, चोरकथा, स्त्रीकथा, भोजन कथा में अपना समय बरबाद करना, कथा कहानी पढ़ना इनसे भय और भ्रम पैदा होता है। यह जीवन को अशान्त उद्विग्न और भयभीत बना देती हैं। इनमें फंसे जीव हमेशा भयभीत रहते हैं । विकथाओं का विश्वास करने से मिथ्यात्व का पोषण होता है, घोर पाप बन्ध होता है, जिससे मरकर दुर्गति में जाना पड़ता है। कुगुरुओं के जाल में फंसा जीव इसी प्रकार के नाना कष्ट भोगता दुर्गतियों में रुलता रहता है, यहाँ भी नाना प्रकार के दुःख भोगता है, हमेशा चिन्तित भयभीत रहता है और आगे क्या होता है ? वह आगे कहते हैं अगुरस्य गुरुं मान्ये, मूढ़ दिस्टि च संगता । नरा नरयं जांति, सुद्ध दिस्टी कदाचना ॥ ८६ ॥ अनृतं अचेतं प्रोक्तं, जिन द्रोही वचन लोपनं । विस्वासं मूढ जीवस्य, निगोयं जायते धुवं ॥ ८७ ॥ अन्वयार्थ - (अगुरस्य गुरुं मान्ये) कुगुरुओं को गुरु मानने वाले (मूढ़ दिस्टि च संगता) और मूढ़ मिथ्यादृष्टियों की संगति करने वाले (ते नरा नरयं जांति) जो मनुष्य हैं वह नरक ही जाते हैं (सुद्ध दिस्टी कदाचना) उन्हें कभी भी सम्यक्दर्शन आत्म श्रद्धान नहीं होता । (अनृतं अचेतं प्रोक्तं ) जो अचेतन अर्थात् मूर्ति आदि की पूजा उपासना करने और बाह्य क्रिया करने को धर्म कहते हैं, उपदेश देते हैं (जिन द्रोही वचन लोपनं) वह जिनद्रोही जिनेन्द्र के वचनों का लोपन करने वाले हैं (विस्वासं मूढ जीवस्य ऐसे मूढ़ जीवों का विश्वास करने से (निगोयं जायते धुवं) निश्चय ही निगोद जाना पड़ता है। विशेषार्थ - यहाँ कुगुरु की मान्यता संगति करने का क्या परिणाम होता है, यह बताया जा रहा है। जो ऐसे कुगुरुओं को, जो पारधी जैसे हैं, गुरु मानते हैं। ऐसे ६३
SR No.009722
Book TitleShravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherGokulchand Taran Sahitya Prakashan Jabalpur
Publication Year
Total Pages320
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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